गंगा से ब्रह्मपुत्र तक, भूपेन हज़ारिका की अमर आवाज़

भूपेन हज़ारिका ने असम से दुनिया तक अपनी गहरी आवाज़ और लोककला से समाज, राजनीति और मानवता को स्वर दिया। उनकी विरासत आज भी जिंदा है।;

Update: 2025-09-14 02:27 GMT
Click the Play button to listen to article

असम के सादिया की एक ठंडी सुबह। भूपेन हज़ारिका (1926-2011) नहा रहे थे, तभी उनकी मां ने दसवें बच्चे को जन्म दिया। उनके पिता ने हड़बड़ाहट और मज़ाक के बीच पूछा भूपेन, इस बच्चे का नाम क्या रखूं?” छोटे भूपेन ने झिझकते हुए जवाब दिया देउता (पिताजी), इसे फुल स्टॉप बुलाइए। वह बच्चा परिवार का आख़िरी संतान बना, लेकिन बड़े बेटे भूपेन पूरे परिवार की रीढ़ बने रहे। गरीबी और संघर्ष से लेकर सफलता तक, उन्होंने भाई-बहनों को पढ़ाया-लिखाया, रोज़गार दिलाया, शादियाँ कराईं और अगली पीढ़ी तक को सहारा दिया। यह बोझ उनके मन पर भारी था, लेकिन इसी ने उनमें कर्तव्य और ज़िम्मेदारी की भावना बोई जो परिवार से लेकर राज्य, देश और फिर पूरी दुनिया तक फैल गई।

असम की सांस्कृतिक हलचल और भूपेन का उदय

1930 के दशक का असम साहित्य, नाटक और संगीत के प्रयोगों से गुज़र रहा था। पहली असमिया फ़िल्म जॉयमती (1935) बनी, संगीत ने सांस्कृतिक अस्मिता और राजनीतिक आकांक्षाओं को जोड़ना शुरू किया। इसी दौर में भूपेन ने अपनी गहरी और गंभीर आवाज़ से लोगों को चौंकाया। किशोरावस्था तक वे ज्योतिप्रसाद अग्रवाला, विष्णु राभा और लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ जैसे मार्गदर्शकों से प्रभावित हो चुके थे। भाषा, समाजवादी विचार और कला को सामाजिक हथियार बनाने की शिक्षा उन्हें यहीं मिली।

शिक्षा और ‘जाजाबर’ की पहचान

भूपेन ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एम.ए. और कोलंबिया यूनिवर्सिटी से मास कम्युनिकेशन में पीएच.डी. की। वे अमेरिका में रहकर अकादमिक जीवन बिता सकते थे, लेकिन नदी ने उन्हें पुकारा और वे असम लौट आए—गरीबी में, लेकिन ‘जाजाबर’ (यायावर) की पहचान के साथ। उनका गीत आमी एक जाजाबर उनकी आत्मकथा जैसा है—एक फकीर, जो गली-गली स्वतंत्रता का सपना गाता था।

IPTA और कला का जनांदोलन

1950 के दशक में उन्होंने इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (IPTA) से जुड़कर किसानों, मज़दूरों और छात्रों के बीच गीत-नाटक से आंदोलन खड़ा किया। उनके गीत भूखे मज़दूर, ब्रह्मपुत्र की महिमा, किसान संघर्ष और ग़रीबों की पीड़ा का बयान थे। 1972 में उन्होंने बर्लिन अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक गीत महोत्सव में भी गाया—जय जय नबजातो बांग्लादेश और आमी आसमिया ना हदुखिया।

गंगा से लेकर दुनिया तक

उनका गीत ओ गंगा बहती हो क्यों (असमिया बिस्तीर्ण परोरे से प्रेरित) समाज की नैतिक सड़ांध और असमानता पर तीखा सवाल करता है। गंगा को माँ और साक्षी मानकर वे पूछते हैं—“इतिहास बदलाव की पुकार करता है, फिर भी नदी और समाज क्यों मौन हैं?” यह गीत आधुनिक भारत की नैतिक चुनौतियों पर गहरी चोट है।

राजनीति और असमिया अस्मिता

1967 में वे निर्दलीय विधायक बने, 1971 में हारे और 2004 में भाजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़े—लेकिन असफल रहे। उनके गीत असमिया अस्मिता, विरोध और उम्मीद के दस्तावेज़ रहे। कभी वे वैश्विक मानवता की बात करते, तो कभी असम के खेत-खलिहानों और बाढ़ की त्रासदी को स्वर देते।

धुमुहा और कल्पना लाजमी

निर्देशिका कल्पना लाजमी ने उन्हें ‘धुमुहा’ (तूफ़ान) कहा—जंगली, करिश्माई, उदार और सहानुभूतिपूर्ण। दोनों ने 35 साल साथ बिताए, सिनेमा और जीवन के साझेदार बने। एक पल (1986) से शुरू हुई उनकी सिनेमाई यात्रा रुदाली और दमन जैसी फ़िल्मों तक पहुँची।

जाजाबर का दर्शन

भूपेन ने कहा दुनिया ने मुझे अपना लिया, मैंने अपना घर भुला दिया। उनका यायावरपन भागना नहीं, बल्कि मानवता को अपनाने का दर्शन था। वे मिसिसिपी से गंगा तक, ताशकंद से पेरिस तक यात्राएँ करते रहे और वहीं से गीतों की ऊर्जा पाते रहे। उनके लिए राह के लोग ही परिवार थे, और अजनबी अपने।

विरासत

2011 में उनके निधन के बाद भी उनकी आवाज़ आज असम की चाय बग़ानों और घाटों पर गूँजती है। बंगाल में उनकी जिबोन मुखी गान लोकप्रिय है। उनका सवाल आज भी गूँजता है “मनुहे मनुहर बाबे, जदि नहोय मानुह जन… कहो, मनुह होबो कुनो जन?”

(अगर इंसान इंसान के लिए नहीं, तो इंसानियत का अर्थ क्या है?)

Tags:    

Similar News