बिहार के इस गांव में मस्जिद-अजान दोनों, लेकिन मुस्लिम समाज नहीं देता जवाब
नालंदा के सरबहदी गांव में जाहिद मस्जिद में ही रहते हैं और गांव में छोड़ी गई मुस्लिम संपत्तियों की देखभाल करते हैं। उन्होंने अपने पिता से वादा किया था कि वे मस्जिद को कभी नहीं छोड़ेंगे।;
पैंतालीस वर्षीय जाहिद अंसारी नालंदा जिले के सरबहदी गांव की मस्जिद से दिन में पांच बार अजान देते हैं। लेकिन कोई नमाज पढ़ने नहीं आता। इसके बाद वह मस्जिद में अकेले ही नमाज अदा करते हैं, क्योंकि वह गाँव के अकेले मुस्लिम निवासी हैं। कभी मुस्लिम बहुल गाँव हुआ करता था, लेकिन अब यहां कोई मुस्लिम परिवार नहीं रहता। 2011 की जनगणना के अनुसार, इस गांव में लगभग 680 हिंदू परिवार रहते हैं, और जाहिद यहाँ के अकेले मुस्लिम बचे हैं।
सरबहदी में जन्मे और पले-बढ़े जाहिद ने अपना बचपन अपने पिता को मस्जिद के मौज़्ज़िन के रूप में सेवा करते हुए देखा था। यह मस्जिद 200 साल पहले बनी थी। वर्षों तक जाहिद अपने पिता के साथ गांव में रहे, लेकिन 2012 में उनके पिता के निधन के बाद, उन्होंने गाँव छोड़ने से इनकार कर दिया, जबकि उनके समुदाय के अन्य लोग धीरे-धीरे चले गए।
अब जाहिद मस्जिद में ही रहते हैं और गांव में छोड़ी गई मुस्लिम संपत्तियों की देखभाल करते हैं। उन्होंने अपने पिता से वादा किया था कि वे मस्जिद को कभी नहीं छोड़ेंगे, और आज भी वे इस वादे को निभा रहे हैं।
गांव में अकेली जिंदगी
बिना परिवार और बिना धार्मिक समुदाय के जाहिद का हर दिन एक ही दिनचर्या में गुजरता है। वह सुबह उठते हैं, मस्जिद और उसके आस-पास की सफाई करते हैं और फिर अज़ान देते हैं। रात में जब गाँव सो जाता है, तो वह गाँव के स्कूल में रात के चौकीदार के रूप में काम करके अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं।शुक्रवार और अन्य धार्मिक आयोजनों पर, जब सामूहिक प्रार्थनाएँ होती हैं, तो वह पास के गाँव में जाते हैं। जाहिद का जीवन चाहे जितना भी एकरस हो, लेकिन गाँव के लोग उनकी एकाकी दुनिया में रंग भरने की कोशिश करते हैं।
गांव की गंगा-जमुनी संस्कृति
चालीस साल पहले, सरबहदी में मुस्लिम समुदाय खूब फला-फूला था। एक लोककथा के अनुसार, इस गांव में एक मुस्लिम ज़मींदार नज्जो बाबू और उनके मित्र भिखारी महतो रहते थे। उनकी दोस्ती इतनी गहरी थी कि जब तक वे जीवित थे, तब तक गाँव में कभी सांप्रदायिक हिंसा या नफरत नहीं हुई। "लोग सभी धर्मों के त्योहार मिलकर मनाते थे," जाहिद बताते हैं।लेकिन 1981 में बिहार शरीफ में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, जिसमें पाँच दिनों तक चली हिंसा में 45 से अधिक लोग मारे गए और 70 से अधिक घायल हुए। इसके बाद गाँव में डर का माहौल बन गया।
धीरे-धीरे मुस्लिम परिवारों ने गांव छोड़ना शुरू कर दिया। कुछ ने डर की वजह से, तो कुछ ने रोज़गार की तलाश में शहरों की ओर रुख किया। "दंगों के बाद से, मुस्लिम परिवार गाँव छोड़कर चले गए," गाँव के 60 वर्षीय संतोष पासवान बताते हैं। "मुस्लिम समुदाय के अस्तित्व के निशान अब कब्रिस्तान, इमामबाड़ा और दरगाह में देखे जा सकते हैं, लेकिन ज्यादातर मुसलमानों ने अपने घर बेच दिए और गाँव से नाता तोड़ लिया।"
वादे की खातिर त्याग
जाहिद की पत्नी उनसे अलग हो गई, और उनके भाई-बहन भी शहरों में बस गए, लेकिन उन्होंने अपने पिता से किया वादा निभाने के लिए गांव में रहना चुना। "मैंने अपने पिता से वादा किया था कि अपनी आखिरी सांस तक मस्जिद की देखभाल करूंगा, और मैं उस वादे को निभा रहा हूं।"गांव के सभी मुस्लिम परिवार भले ही चले गए हों, लेकिन ग्रामीणों ने जाहिद को कभी अलग-थलग महसूस नहीं होने दिया। चाहे त्योहार हो या शादी, उन्हें हमेशा बुलाया जाता है। जब वह बीमार होते हैं और खाना नहीं बना पाते, तो लोग उन्हें भोजन और देखभाल उपलब्ध कराते हैं।
"अगर जाहिद को किसी चीज़ की ज़रूरत होती है या कोई सुझाव देना होता है, तो हम हमेशा उनके लिए खड़े रहते हैं। चूँकि मस्जिद में पानी की आपूर्ति नहीं है, इसलिए हम उन्हें पानी उपलब्ध कराते हैं," संतोष बताते हैं।
गांववालों का सहारा
गांव के सरपंच उत्तम कुमार ने कहा, "हमने मस्जिद के बाहर हैंडपंप लगाने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन जाहिद ने यह कहकर मना कर दिया कि इससे मस्जिद का क्षेत्र गीला हो जाएगा। इसलिए गाँववाले उन्हें पानी देते हैं।"जाहिद के अनुसार, गांववालों से उन्हें काफी सहयोग मिलता है। "कुछ लोग अब इमामबाड़े और कब्रिस्तान को गायों के लिए शेड और अनाज भंडारण के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। चूँकि ये जगहें खाली पड़ी हैं, इसलिए मुझे कोई आपत्ति नहीं। लेकिन जब कोई इन जगहों को हड़पने की कोशिश करता है, तो सरपंच हस्तक्षेप करते हैं और मेरी मदद करते हैं," जाहिद कहते हैं।
गांव में करीब 2200 एकड़ जमीन अब भी मुस्लिमों के नाम पर है, जिनकी देखभाल जाहिद करते हैं। इसके लिए उन्हें बीबी सोगरा वक्फ एस्टेट से मात्र 3,000 रुपये प्रति माह मिलते हैं। लेकिन, कभी-कभी कुछ असामाजिक तत्व इन संपत्तियों पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं, और ऐसे मामलों में पंचायत हस्तक्षेप करती है।
मुसलमानों की कमी खलती है
गांव के लोग जाहिद से केवल इसलिए नहीं जुड़े हैं कि वह अकेले मुस्लिम हैं, बल्कि उनका रिश्ता पुराना है। गांव के बुजुर्ग अशोक महतो कहते हैं, "मैं न केवल जाहिद के पिता को जानता था, बल्कि उनके दादा को भी जानता था। हम एक परिवार की तरह रहते थे। मैं जाहिद के पिता के साथ मुस्लिम दरगाहों पर जाता था और वहाँ बिना किसी भेदभाव के प्रार्थना करता था। जाहिद मेरे बेटे की तरह हैं। मैं उन्हें उनकी पत्नी को छोड़ने के लिए डाँटता भी हूँ, और उन्हें बुरा नहीं लगता।"
लेकिन सब कुछ ठीक नहीं है। कुछ लोग जाहिद के अकेलेपन का मजाक उड़ाते हैं। "वे कहते हैं, 'तुम यहाँ सुरक्षित हो क्योंकि हिंदू बहुसंख्यक हैं। अगर हालात उलट होते, तो तुम भाग जाते, जैसे बांग्लादेश में हिंदू भाग रहे हैं।'"हालांकि जाहिद इस पर हँसते हैं और मानते हैं कि "शांति बहुत नाज़ुक" है, लेकिन वे यह भी स्वीकार करते हैं कि गाँव में उन्हें व्यापक समर्थन मिलता है। "जब मैं किसी काम से बाहर जाता हूँ और अज़ान नहीं देता, तो लोग मुझे फोन कर पूछते हैं कि मैं ठीक हूँ या नहीं," जाहिद कहते हैं।
गाँववालों का कहना है कि वे अज़ान की आवाज़ के आदी हो चुके हैं। "बचपन से हम अज़ान सुनते आए हैं। अब अगर यह सुनाई नहीं देता, तो लगता है कुछ अधूरा है। हम नहीं चाहते कि जाहिद इस गाँव को छोड़कर जाएं," अशोक कहते हैं।
भविष्य का सवाल
गाँव के हिंदू और जाहिद, दोनों मानते हैं कि मुस्लिमों की कमी महसूस होती है। "हमें अपने मुस्लिम दोस्तों की याद आती है। हम चाहते हैं कि वे फिर से गाँव में बसें।"लेकिन सवाल यह है कि जब गाँव का आखिरी मुस्लिम भी चला जाएगा या नहीं रहेगा, तब क्या होगा?