देवभूमि का बदलता चेहरा, सुकून की वादियों में बढ़ता खतरा

स्थानीय लोगों की नज़र से क्यों बढ़ रही हैं पहाड़ों में बाढ़, भूस्खलन और आपदाएं उत्तराखंड सुकून की वादियों से आपदा के साए तक;

Update: 2025-08-10 06:02 GMT

Uttarkashi Diary : उत्तराखंड की वादियाँ, जहां नजर डालो वहां हरियाली, बर्फ से ढकी चोटियाँ और ठंडी हवाएं—किसी जन्नत से कम नहीं लगतीं। मैदानों से यहां आने वाले लोग शोर-शराबे और प्रदूषण से दूर, सुकून और ताजगी का अनुभव करते हैं।

लेकिन जब इन पहाड़ों पर आपदा आती है, तो यही सुकून डर और बेचैनी में बदल जाता है। यहाँ से बचकर मैदानी इलाकों में लौटने की छटपटाहट होने लगती है।

पिछले 10–15 वर्षों में उत्तराखंड में आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता दोनों बढ़ी हैं। वजहें अलग-अलग हैं—कुछ वैज्ञानिक, तो कुछ स्थानीय लोगों के नजरिए से। ‘द फेडरल देश’ ने हाल ही में उत्तरकाशी के धराली क्षेत्र में आई फ्लैश फ्लड त्रासदी के बाद वहां के लोगों से बातचीत की, ताकि उनकी नज़र से इन आपदाओं के कारण समझे जा सकें।

सिंगोटी गाँव के रहने वाले अमेनदर सिंह बिष्ट, वरिष्ठ नागरिक पूर्व फौजी सुमेर सिंह बिष्ट, बुद्धिराजा रमोला और बलवंत सिंह राणा के अलावा कुराली गांव निवासी राकेश, उत्तरकाशी डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल के नजदीक ढाबा चलाने वाले जसबीर सिंह, डूंडा गाँव निवासी विकास से बात करते हुए ये समझने की कोशिश की कि आखिर उनकी समझ से उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा आने की क्या वजह है.

देवभूमि का बदलता चेहरा

उत्तरकाशी के लोग इसे देवभूमि मानते हैं—चार धाम का पवित्र स्थल, जहां देवी-देवताओं का वास है। पहले यात्री श्रद्धा और सात्विक भाव से यहां आते थे। लेकिन अब बहुत से लोग तीर्थ को पिकनिक की तरह लेने लगे हैं।

स्थानीय लोगों का कहना है कि बड़ी संख्या में यात्री मांस और मदिरा का सेवन करते हैं, धार्मिक आचार से दूर रहते हैं। कुछ कांवड़ यात्री भी भक्ति की बजाय माहौल बिगाड़ते हैं। उनका मानना है कि इस तरह के आचरण से देवताओं का आशीर्वाद कम और नाराज़गी ज्यादा मिलती है।

मंदिरों में वीवीआईपी संस्कृति

लोगों ने एक और चिंता जताई—मंदिरों में वीवीआईपी दर्शन का बढ़ता चलन। जिसके पास पैसा है, वह जल्दी और आराम से दर्शन कर लेता है, जबकि गरीब श्रद्धालु, लंबी और कठिन यात्रा करने के बावजूद, दर्शन से वंचित रह जाता है। इससे भक्तों के मन में निराशा और कुढ़न पैदा होती है।

यात्रियों से ठगी

स्थानीय लोग मानते हैं कि यात्रा के दौरान कुछ होटल मालिक यात्रियों से मनमाना पैसा वसूलते हैं। कभी बगैर प्याज-लहसुन का भोजन मांगने पर भी उन्हें झूठ बोलकर प्याज-लहसुन वाला खाना दे दिया जाता है। उनका कहना है कि जब सेवा की जगह धोखा होगा, तो नकारात्मक परिणाम भी आएंगे।

विकास बनाम विनाश

कई लोगों ने माना कि विकास जरूरी है, लेकिन इसकी एक सीमा होनी चाहिए। पहाड़ों को अंधाधुंध काटना, ब्लास्टिंग करना, बड़े हाईवे बनाना—ये सब पहाड़ों को भीतर से कमजोर करते हैं। पेड़ों की कटाई मिट्टी की पकड़ कम करती है, जिससे तेज बारिश में भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाएं आती हैं।

उत्तरकाशी पहले से ही संवेदनशील क्षेत्र है। 2004 में वारनाव्रत पहाड़ फटने से तीन दिन तक रेतीली मिट्टी बहती रही, होटल बह गए, भारी नुकसान हुआ। अब फिर गंगा किनारे अवैध निर्माण और प्रदूषण हो रहा है, जो आपदाओं का खतरा बढ़ा रहा है।

चीड़ के पेड़ों का असर

स्थानीय लोगों का मानना है कि चीड़ के पेड़ पानी ज्यादा सोखते हैं, जिससे मिट्टी सूखी हो जाती है और वे आग को तेजी से पकड़ते हैं। यही वजह है कि जंगलों में आग लगने की घटनाएं बार-बार होती हैं।

मौसम का बदलता मिज़ाज

करीब 15 साल पहले तक यहां हर साल बर्फबारी होती थी, लेकिन अब बर्फ का नामोनिशान कम होता जा रहा है। पहाड़ और जंगलों की कटाई, मौसम में बड़ा बदलाव ला रही है।

टिहरी बांध बनने के बाद बारिश का पैटर्न भी बदल गया—पहले जून से अगस्त तक बारिश होती थी, अब अप्रैल से ही बारिश शुरू हो जाती है, जो कभी-कभी आपदा में बदल जाती है।

बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप

सड़कें, होटल, पर्यटन—सब बढ़ रहा है, लेकिन इसके साथ प्लास्टिक का इस्तेमाल, कूड़ा-कचरा और पांच-पांच मंजिला इमारतें नदी किनारे बन रही हैं। यह सब पर्यावरण के साथ सीधा खिलवाड़ है। प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम हमेशा महंगा पड़ता है।

उत्तराखंड की खूबसूरत वादियां हमारी धरोहर हैं, लेकिन अंधाधुंध विकास, बदलते सामाजिक आचरण और प्रकृति के साथ छेड़छाड़, इसे धीरे-धीरे आपदाओं के मुंह में धकेल रही हैं। अगर समय रहते सावधानी नहीं बरती, तो सुकून देने वाली यह ‘जन्नत’ डर और खतरे की पहचान बन सकती है।

Tags:    

Similar News