तमिलनाडु की पुलिस हिरासत में न्याय नहीं, सिर्फ़ यातना

तमिलनाडु में हिरासत में हो रही मौतें संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन हैं। न्यायिक प्रक्रिया की धीमी रफ्तार और NHRC की सीमित शक्ति चिंता का विषय है।;

Update: 2025-07-02 05:28 GMT
तमिलनाडु पुलिस की एफआईआर में दावा किया गया था कि अजीत कुमार की मौत दौरा पड़ने से हुई थी, जबकि पोस्टमार्टम में पता चला कि मौत यातना के कारण हुई थी।

हिरासत में मौतों जिन्हें आम तौर पर लॉक-अप डेथ्स कहा जाता है। इस तरह के मामले तमिलनाडु से लगातार सामने आ रही हैं और यह राज्य की कानून व्यवस्था की गहरी खामियों को उजागर करती है। हालिया मामला 27 वर्षीय मंदिर सुरक्षा गार्ड अजीत कुमार की मौत का है, जो पुलिस की कथित ज्यादती, मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना या फिर निजी दुश्मनी का शिकार बना। ऐसे मामले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 जो जीवन के अधिकार और स्वतंत्रता की गारंटी देता है का स्पष्ट उल्लंघन हैं और कानूनन दंडनीय अपराध हैं।

दक्षिण भारत में सबसे खराब रिकॉर्ड तमिलनाडु का

लोकसभा में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016-17 से 28 फरवरी 2022 तक तमिलनाडु में 478 हिरासत में मौतें हुईं जो दक्षिण भारत में सबसे अधिक हैं। इसके बाद आंध्र प्रदेश (244), केरल (235), तेलंगाना (128) और कर्नाटक (58) का स्थान आता है। यह चिंताजनक आंकड़ा बताता है कि राज्य में पुलिस व्यवस्था में गहरे स्तर पर सुधार की आवश्यकता है।

न्यायिक जांच और नतीजों की नाकामी

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2017 से 2021 के बीच देशभर में कुल 286 न्यायिक जांचें हिरासत में हुई मौतों पर हुईं, जिनमें से 114 पुलिस कर्मियों को गिरफ्तार किया गया। लेकिन केवल 79 के खिलाफ आरोप तय हुए और किसी को सजा नहीं मिली। तमिलनाडु में 39 न्यायिक जांचों में अधिकतर मामलों में कोई आरोप या सजा नहीं हुई, जिससे जवाबदेही पर सवाल उठते हैं।

सतन्कुलम (2020) की बहुचर्चित हिरासत हत्याकांड, जिसमें जयराज और बेन्निक्स की मौत हुई थी, आज चार साल बाद भी न्याय की प्रतीक्षा में है। नौ पुलिस अधिकारियों पर आरोप तय होने के बावजूद कोई निर्णायक कार्रवाई नहीं हुई।

ऐतिहासिक सजा, लेकिन न्याय अब भी अधूरा

हाल ही में तूतीकोरिन की एक अदालत ने 1999 में हिरासत में मौत के मामले में नौ लोगों, जिनमें वर्तमान श्रीवैकुंटम के डीएसपी भी शामिल हैं, को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। यह फैसला तमिलनाडु में 26 वर्षों में पहली सजा है, जो जवाबदेही की दिशा में एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम है। हालांकि, वरिष्ठ अधिवक्ता शंकर का कहना है कि अनुच्छेद 22 के तहत अवैध हिरासत से नागरिकों की रक्षा की गारंटी है, लेकिन व्यवहार में यह संरक्षण जनता तक नहीं पहुंच पाता।

NHRC की सीमित शक्तियां और असहाय न्याय प्रणाली

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने हाल ही में हिरासत में मौत, यौन उत्पीड़न और पुलिस बर्बरता के मामलों में मुआवजे की राशि बढ़ा दी है  लेकिन यह सिर्फ सिफारिशें होती हैं, जिनका पालन राज्य सरकारें अक्सर नहीं करतीं। मानवाधिकार कार्यकर्ता एविडेंस कथिर का कहना है कि आयोग की कानूनी शक्तियों की कमी के कारण गंभीर अपराधों पर कार्रवाई नहीं हो पाती।

सिस्टम में सुधार की सख्त जरूरत

वरिष्ठ अधिवक्ता एलांगोवन ने कहा, "हिरासत में मौतें न्यायपालिका की विफलता को दर्शाती हैं। अदालतों को पुलिस की ज्यादती रोकनी चाहिए, लॉकअप में मेडिकल सुविधाएं सुनिश्चित करनी चाहिए, और समयबद्ध जांच प्रणाली को मजबूत करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि कानून के अनुसार, हिरासत में लिए गए व्यक्ति को वकील की मदद मिलनी चाहिए और आत्म-स्वीकृति को बाध्य करना असंवैधानिक है, लेकिन तमिलनाडु में आज भी थर्ड डिग्री का चलन जारी है।

सरकार की इच्छाशक्ति पर सवाल

एलांगोवन ने कहा कि तमिलनाडु सरकार की नौकरी देने और मुआवजा देने की घोषणाएं तभी कारगर होंगी जब प्रशासनिक प्रणाली में राजनीतिक हस्तक्षेप खत्म होगा। अजीत कुमार मामले में एफआईआर में पुलिस ने मौत का कारण दौरा बताया, जबकि पोस्टमॉर्टम ने साफ किया कि मौत प्रताड़ना से हुई। कार्रवाई तो हुई, लेकिन अदालत में सरकार ने ठीक से पक्ष नहीं रखा। जब तक ऐसे मामलों को निष्पक्ष रूप से निपटाया नहीं जाएगा, तब तक व्यवस्था नहीं बदलेगी।

तमिलनाडु में हिरासत में मौतों का सिलसिला राज्य की न्याय व्यवस्था पर एक गंभीर सवाल खड़ा करता है। जब तक न्यायिक निष्पक्षता, पुलिस सुधार और राजनीतिक इच्छाशक्ति एक साथ कार्य नहीं करेंगे, तब तक संविधान की आत्मा  जीवन के अधिकार को बार-बार कुचला जाता रहेगा।

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