ओडिशा के ददन मज़दूर, क़र्ज़ की जंजीरों में बंधी ज़िंदगी

ओडिशा के बलांगीर ज़िले में ददन प्रणाली मज़दूरों को क़र्ज़ और पलायन के जाल में बाँध रही है। ठेकेदारों के शोषण से उनकी ज़िंदगी गुलामी जैसी हो गई है।;

Update: 2025-08-19 04:56 GMT

Odisha Dadan System: 45 वर्षीय प्रेमाबती तुमुनिया, ओडिशा के बलांगीर ज़िले के मुरिबहाल ब्लॉक के इछापाड़ा पंचायत के सरगुल गांव की रहने वाली हैं। अभी-अभी उन्होंने दोपहर का खाना बनाया है चावल और साग। गर्मी के दिन में थोड़ी देर आराम करने का मन है, फिर अपने दो कमरों वाले अधपके ईंटों के घर की दीवारों पर जमी धूल साफ़ करेंगी। पीछे उनका पुराना कच्चा मकान भी खड़ा है।

परिवार के पास डेढ़ एकड़ ज़मीन है। पति पीतांबर हैदराबाद में मज़दूरी करते हैं, कुछ महीनों से घर की ज़रूरतें पूरी करने के लिए वहीं ठहरे हुए हैं। वे कुछ दिनों में लौटेंगे, ताकि गणेश चतुर्थी के अगले दिन पड़ने वाले ‘नुआखाई’ पर्व से पहले परिवार के लिए थोड़ी बहुत ख़रीदारी कर सकें। पश्चिमी ओडिशा का सबसे अहम कृषि उत्सव ‘नुआखाई’ इस बार 28 अगस्त को मनाया जाएगा। प्रेमाबती कहती हैं  हम कुछ सौ रुपये से ज़्यादा खर्च नहीं कर सकते।

पूरा परिवार मज़दूरी पर निर्भर

प्रेमाबती और पीतांबर के परिवार में दो बेटे (दोनों 20 वर्ष से ऊपर), बहू और 17 वर्षीय बेटी कुमुदिनी शामिल हैं। सभी ‘ददन’ कहलाते हैं यानी वे मौसमी मजबूरी के कारण मज़दूरी करने के लिए ठेकेदारों के साथ पलायन करते हैं।पिछले साल परिवार ने एक ठेकेदार से 3 लाख रुपये एडवांस लिए थे। इस रकम से उन्होंने 50,000 रुपये सूदखोर को लौटाए और घर पर भी थोड़ा खर्च किया। समझौते के अनुसार छह लोगों को हैदराबाद के एक ईंट-भट्ठे में छह महीने में छह लाख ईंटें बनानी थीं। दिसंबर में पूरा परिवार वहाँ गया। मगर दिन-रात मेहनत करने के बावजूद वे 4.3 लाख ईंटें ही बना पाए। तय समय पूरा हो गया तो भट्ठा मालिक गुस्से में आ गया और सामान्य प्रथा के अनुसार प्रेमाबती और बेटी कुमुदिनी को बंधक बना लिया। एक महीने और काम करवाने के बाद ही ठेकेदार के हस्तक्षेप पर उन्हें छोड़ा गया, लेकिन 40,000 रुपये भी लौटाने पड़े। वे 27 जून, रथयात्रा के दिन गाँव लौट पाए।

बेटियां-बेटे अपमान झेलने को मजबूर

कुमुदिनी, जो कक्षा 10 छोड़ चुकी है, कहती है हमें दिन में सिर्फ 3–4 घंटे सोने मिलता था। मालिक और उसके आदमी गंदी गालियाँ देते, कई बार भाइयों को मारने की भी धमकी दी। बहुत डरावना माहौल था। कुछ ही दूरी पर रहने वाली 40 वर्षीय तराबती भोई बताती हैं कि मालिक ने उनके परिवार की मज़दूरी से 10,000 रुपये काट लिए, पर पूछने की हिम्मत तक नहीं हुई। फिर भी दोनों महिलाएँ मानती हैं कि कुछ महीनों बाद वे फिर गाँव छोड़कर जाएँगी – क्या करें, और कोई रास्ता नहीं है।

सरगुल गांव का हाल

वार्ड सदस्य जोगेश्वर बेंटकार कहते हैं कि सरगुल के 90% लोग (लगभग 2300 की आबादी) ददन हैं। यहाँ दो-तिहाई आबादी अनुसूचित जनजाति (ST) की है। गाँव में प्राथमिक विद्यालय, डाकघर, राजस्व निरीक्षक दफ़्तर, बिजली-पानी और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएँ हैं, लेकिन रोज़गार नहीं। जनवरी से जून तक पूरा गाँव खाली हो जाता है, सभी परिवार बाहर मज़दूरी के लिए निकल जाते हैं।

बलांगीर और KBK क्षेत्र में पलायन

इछापाड़ा पंचायत के 9 गाँवों की तस्वीर भी ऐसी ही है, जहाँ 80% आबादी ददन मज़दूर है। बलांगीर ज़िले के कई ब्लॉक जैसे मुरिबहाल, बांगोमुंडा, तुरकेला, बेलपाड़ा, पाटनागढ़ और टिटलागढ़ में यही हाल है। ओडिशा के 30 में से 14 ज़िले पलायन-प्रवण माने जाते हैं, खासकर KBK क्षेत्र (कोरापुट, मल्कानगिरि, नबरंगपुर, रायगड़ा, बलांगीर, सोनपुर, कालाहांडी, नुआपाड़ा) और बड़गढ़। विशेषज्ञों का कहना है कि ‘ददन’ वास्तव में लेबर ट्रैफिकिंग है।

सरकारी योजनाओं की विफलता

गरीबी और भूखमरी दूर करने के लिए 1995 में KBK योजना लाई गई थी, पर तीन दशक बाद भी हालात जस के तस हैं। आलोचकों के मुताबिक योजना का मकसद धीरे-धीरे गरीबी उन्मूलन से हटकर खनन क्षेत्र विकसित करना हो गया। MGNREGA भी नाकाम रहा – सरगुल के लोगों को इस साल सिर्फ 20 दिन का काम मिला। पुरानी मज़दूरी भी कई लोगों को नहीं मिली।पूर्व मुख्य सचिव जुगल किशोर मोहापात्रा कहते हैं – “सरकार पलायन-प्रवण इलाकों में 200 दिन काम देने की नीति लागू क्यों नहीं कर पाती, समझ से बाहर है।”

ठेकेदारों का जाल

नुआखाई से पहले ठेकेदार मज़दूरों से संपर्क करते हैं, एडवांस देते हैं और बदले में उनका आधार कार्ड या कोई दस्तावेज़ रख लेते हैं। एडवांस लेने के बाद मना करना संभव नहीं। बलांगीर का कांताबांजी कस्बा तो मज़दूर बाज़ार का सबसे बड़ा केंद्र बन चुका है। सिर्फ नुआखाई सीज़न में यहाँ का लेन-देन 1200 करोड़ रुपये तक पहुँचता है। मानवाधिकार कार्यकर्ता उमी डैनियल कहते हैं “ददन असल में क़र्ज़ी गुलामी है। लोग खुलेआम खरीदे-बेचे जा रहे हैं। इससे सिर्फ़ ठेकेदारों और भ्रष्ट तंत्र का फायदा होता है, जबकि ग़रीब मज़दूरों की ज़िंदगी बदहाल बनी रहती है।”

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