डाकला संगीत के लोकप्रिय होने से कैसे इसके पारंपरिक लोक कलाकार हाशिये पर चले गए

गुजरात के नवरात्रि गरबा आयोजनों में गाया जाने वाला लोकप्रिय संगीत रूप डाकला परंपरागत रूप से केवल एक वाद्ययंत्र डाक की संगत पर गाया जाता था। लेकिन व्यावसायीकरण की वजह से अब पारंपरिक कलाकारों को पीछे छोड़, कई वाद्ययंत्रों की धुन पर ‘जोशीला प्रदर्शन’ करने वाले गायक आगे आ गए हैं।

Update: 2025-09-30 07:19 GMT
शंकर मोतीराम (बाएँ छोर पर खड़े) अन्य लोक कलाकारों के साथ डाकला प्रस्तुत करते हुए। फोटो सौजन्य: कला वर्सो ट्रस्ट

“रामती आवे मड़ी रामती आवे, आज मात मेलडी रामती आवे।”

नवरात्रि के नौ दिवसीय उत्सव के दौरान गुजरात में कोई भी व्यक्ति इस गीत को गरबा आयोजनों में सुन सकता है। आजकल अधिकांश आयोजनों में यह गीत आधुनिक रूप में, अलग-अलग ध्वनियों की मिलीजुली धुन पर गाया-बजाया जाता है। लेकिन पारंपरिक रामती आवे… — जिसकी जड़ें कच्छ क्षेत्र के डाकला लोकसंगीत से जुड़ी हैं — मूल रूप से केवल डाक वाद्य के साथ गाया जाता था।

“डाकला परधी समुदाय का पारंपरिक लोकगीत है। यह एक घुमंतू आदिवासी समुदाय है, जिसे ब्रिटिश हुकूमत ने 1871 के क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के तहत अपराधी घोषित कर दिया था,” बताते हैं कला वर्सो ट्रस्ट के संस्थापक भरमल संजोत। यह संस्था 2012 में भुज में क्षेत्रीय लोकसंगीत को संरक्षित करने के लिए बनी थी। माना जाता है कि परधी समुदाय के कुछ लोग सालों पहले कच्छ के लखपत और अबडासा क्षेत्र में आकर बसे और अपने साथ डाकला संगीत व चामुंडा (एक देवी) की पूजा की परंपरा भी लाए। “परधियों ने डाकला संगीत को स्थानीय खेती और पशुपालक समुदायों तक पहुँचाया। समय के साथ, अन्य स्थानीय समुदायों ने भी इसे अपनाकर अपना बना लिया,” संजोत बताते हैं।

लखपत और अबडासा के लोगों ने डाकला में मेलडी माता को समर्पित गीत जोड़ दिए, जबकि मूल डाकला में परधियों की देवी चामुंडा की स्तुति होती थी। संजोत बताते हैं कि कच्छ में नवरात्रि के दौरान दुर्गा की दो रूपों — मेलडी और चामुंडा — की पूजा होती है, जबकि गुजरात के अन्य हिस्सों में ऐसा नहीं है।

“रामती आवे… गीत मेलडी माता को समर्पित है। उन्हें खेत-खलिहान और पशुओं की रक्षक माना जाता है। अबडासा और लखपत जैसे अक्सर सूखा झेलने वाले क्षेत्रों में उन्हें घर-घर की माता माना जाता है। पीढ़ियों से यह गीत नवरात्रि के पहले दिन गाया जाता रहा है और यही गीत इस पर्व की शुरुआत का संकेत देता था,” संजोत समझाते हैं।

लोकप्रियता और हाशियाकरण

सालों में डाकला पूरे गुजरात में लोकप्रिय हुआ और कई कलाकारों ने इसे मुख्यधारा के सुरों में ढाल लिया। लेकिन विडंबना यह रही कि इसकी मांग बढ़ने के साथ ही पारंपरिक गायक हाशिये पर चले गए।

कच्छ के पारंपरिक डाकला गायक शंकर मोतीराम (कला वर्सो ट्रस्ट से जुड़े) बताते हैं, “डाकला सबसे पहले मालधारी समुदायों के जरिए पूरे राज्य में फैला। 1990 के दशक तक मध्य गुजरात के कलाकार भी डाकला गाने लगे, लेकिन उस समय कच्छ से भी गायक बुलाए जाते थे। नवरात्रि के दौरान कलाकारों का कार्यक्रमों से भरा रहता था। लेकिन 90 के दशक के मध्य से निमंत्रण कम होने लगे और अब तो हमें बुलाया ही नहीं जाता। मुझे अंतिम बार नवरात्रि में गाए नौ साल हो चुके हैं। अब ज्यादातर पारंपरिक गायक मंदिरों तक ही सीमित रह गए हैं।”

पुराने गायकों का कहना है कि श्रोताओं को अब ज्यादा वाद्ययंत्रों वाली जोशीली प्रस्तुति पसंद आने लगी, जबकि परंपरागत डाकला केवल डाक की संगत में गाया जाता है।

डाक वाद्य और वाद्ययंत्रों की बढ़ती भीड़

डाक लकड़ी का बेलनाकार वाद्ययंत्र है, जो बीच में पतला होता है। दोनों सिरों पर बकरी की आँत (ओजरी) की झिल्ली चढ़ाई जाती है। झिल्ली के किनारों में छेद करके रस्सियाँ पिरोई जाती हैं और बीच में बाँधी जाती हैं। रस्सी को कसने या ढीला करने से ध्वनि बदलती है। बीच का छेद उसमें फूँक मारकर आवाज़ के स्वर को नियंत्रित करने में मदद करता है। कच्छ में यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी पुरुषों और महिलाओं दोनों को सिखाई जाती रही है।

लेकिन 90 के दशक के बीच तक गैर-पारंपरिक कलाकारों ने इसमें अन्य वाद्ययंत्र जोड़ने शुरू कर दिए। “सुरेश रावल और दिवंगत मीना पटेल जैसे गुजराती गायक डाकला गाने वाले पहले कलाकारों में थे, जो कच्छ से बाहर के थे। 1997 में सुरेश रावल ने मीना पटेल और अन्य गायकों के साथ डाकला गीतों का एलबम निकाला, जिसमें डाक की जगह ढोल का इस्तेमाल किया गया। यहीं से डाकला का व्यावसायीकरण शुरू हुआ,” याद करते हैं 72 वर्षीय हामिद सामा, एक पारंपरिक गायक।

हाल के वर्षों में गीता रबारी, भूमि शाह, कीर्तिदान गढवी और ऐश्वर्या जोशी जैसे समकालीन गायक डाकला के लिए पहचाने जाने लगे हैं।

2016 में गुजरात के ही संगीतकार और निर्माता मयूर नरवेकर उर्फ बैंडिश प्रोजेक्ट ने गुजराती कलाकारों के साथ मिलकर Dakla-1 एलबम निकाला। “पहली बार गुजराती लोकसंगीत को इलेक्ट्रॉनिका फॉर्मेट में ढाला गया, जिसमें सिंथेसाइज़र, इलेक्ट्रिक गिटार और ड्रम जैसे वाद्ययंत्र इस्तेमाल हुए। Dakla-1 बेहद लोकप्रिय हुआ और उसके बाद बैंडिश प्रोजेक्ट ने आठ एलबम और बनाए। इस महीने Dakla-8 रिलीज हुआ, जिसका प्रदर्शन ऐश्वर्या जोशी ने अहमदाबाद के एक निजी क्लब में किया,” बताती हैं नृत्यकला की स्वतंत्र शोधकर्ता और प्राध्यापक उत्पला देसाई।

देसाई ने कहा, “डाकला के आधुनिकीकरण ने इस शैली को लोकप्रिय तो बना दिया, क्योंकि गाने और भी चटपटे अंदाज़ में रीमिक्स किए जाने लगे। लेकिन इसी प्रक्रिया में पारंपरिक डाकला और उसके कलाकार खो गए। अब कोई भी सिर्फ एक वाद्ययंत्र की संगत वाला गीत सुनना नहीं चाहता।”



गरबा कार्यक्रम की फाइल फोटो। iStock इमेज

पारंपरिक डाकला गायक कभी भी आधुनिक गायकों और व्यावसायीकरण की दौड़ में टिक नहीं पाए। देसाई के अनुसार, “पारंपरिक डाकला कलाकार कच्छ की घुमंतू, पशुपालक या कृषि आधारित समुदायों से आते थे। उनके पास कभी इतना आर्थिक सहारा नहीं था कि वे अपनी कला को आधुनिक रूप दे पाते। कच्छ के कुछ प्रसिद्ध गायक — जैसे ललिता गोधारा, शंकर मोतीराम और मूराला मरवाला — ने दूसरे स्थानीय वाद्ययंत्र बजाना सीखा और लोकसंगीत की दूसरी विधाओं में हाथ आज़माया ताकि गुज़ारा कर सकें। लेकिन अधिकांश कलाकार व्यावसायीकरण की वजह से अप्रासंगिक हो गए।”

हामिद सामा कहते हैं, “डाकला जो कभी भक्ति से जुड़ा था, अब केवल मनोरंजन तक सीमित रह गया है। आज ‘डीजे डाकला’, ‘ईडीएम डाकला’ और पुराने गीतों के रीमिक्स चलते हैं।” 2000 के शुरुआती दशक से ही पारंपरिक गरबा की जगह तेज़ और आक्रामक डाकला गरबा ने नवरात्रि आयोजनों में जगह बना ली।

भारत में कई शास्त्रीय और लोक परंपराओं को समकालीन कलाकारों के साथ सहयोग से नए रूप मिले, लेकिन डाकला गायकों को यह अवसर भी नहीं मिला। अहमदाबाद के संगीतकार और गीतकार केशराज माली बताते हैं, “पारंपरिक गायक इतने सारे वाद्ययंत्रों के साथ गाने के अभ्यस्त नहीं हैं। कई वाद्ययंत्रों — जैसे कीबोर्ड, वायलिन या गिटार और ड्रम — के साथ गाने के लिए औपचारिक प्रशिक्षण चाहिए। हम पारंपरिक गायकों या उनके लोकसंगीत को हटाना नहीं चाहते। वास्तव में डाकला, गुजरात की कई अन्य लोकशैलियों की तरह, हमारे आधुनिक संगीत को प्रेरणा देता रहा है।”

लेकिन दुर्भाग्य से, पारंपरिक डाकला गायकों को इस “प्रेरणा” से न तो मान्यता मिलती है और न ही आर्थिक लाभ। 1990 के दशक में पारंपरिक गायक याद करते हैं कि उन्हें एक कार्यक्रम के लिए 1,000 से 2,500 रुपये मिलते थे। शंकर मोतीराम कहते हैं, “2006 में मुझे वडोदरा में एक कार्यक्रम के लिए 10,000 रुपये मिले, जबकि उसी समय मुख्यधारा के गायक 30,000 से 70,000 रुपये तक लेते थे।”

आज नवरात्रि के दौरान गायक एक दिन में 80,000 से 3.5 लाख रुपये तक कमा लेते हैं, बताते हैं प्रियांक देसाई, एंडलेस इवेंट (अहमदाबाद और मुंबई) के संस्थापक। “अगर गायक लाइव बैंड के साथ आते हैं तो वे अतिरिक्त 50,000 से 60,000 रुपये चार्ज करते हैं। कुछ सेलेब्रिटी गायक एक दिन के प्रदर्शन के लिए 20 लाख रुपये तक लेते हैं। आयोजक इतना पैसा इसलिए देते हैं क्योंकि ये गायक भीड़ खींचते हैं। आजकल लोग तेज़ संगीत चाहते हैं। वे नाचने और मज़े करने आते हैं। अगर हम पारंपरिक लोकसंगीत का कार्यक्रम बुक करें तो टिकट बिकेंगे ही नहीं। पिछले दस वर्षों में गरबा पूरी तरह ग्लैमर और चकाचौंध का हिस्सा बन गया है और इसी के साथ त्योहार के संगीत का स्वरूप भी बदल गया है।”



डाकला गायक नरन परधी अपनी पत्नी के साथ। फोटो सौजन्य: कला वर्सो ट्रस्ट

कुछ समय के लिए रण उत्सव (जो 2005 में तीन दिवसीय उत्सव के रूप में शुरू हुआ था और अब 100 दिनों का कच्छ सांस्कृतिक पर्व बन चुका है) ने डाकला गायकों को उम्मीद दी थी। सामा बताते हैं, “रण उत्सव कच्छ की स्थानीय संस्कृति का उत्सव है। इसमें केवल डाकला गायक ही नहीं, बल्कि विभिन्न समुदायों के लोकगायक, कारीगर, बुनकर सभी अपनी कला दिखाने आते हैं।” लेकिन 100 दिनों के बाद कलाकार फिर बेरोज़गार हो जाते थे। ऐसे में कई कलाकारों ने गाना छोड़कर मज़दूरी का काम पकड़ लिया। सामा कहते हैं, “मेरा बेटा भुज की फैक्ट्री में काम करता है और उसे हमारे पारंपरिक संगीत में कोई दिलचस्पी नहीं है।”

शंकर मोतीराम के लिए आर्थिक संकट से भी बड़ी चिंता है सांस्कृतिक क्षति की। वे कहते हैं, “डाकला गीत गहरे भावों और देवी शक्ति के प्रति समर्पण से जुड़े होते हैं। जैसे हर लोकसंगीत, वैसे ही ये गीत भी मौखिक परंपरा से 14 पीढ़ियों से चले आ रहे हैं। हम बचपन से इन्हें सुनते आए और हर कलाकार अपनी स्मृति से गाता था। इसीलिए पारंपरिक डाकला गायक शायद ही कभी एक जैसे गीत गाते।”

हालाँकि प्रस्तुति के अवसर अब बहुत कम बचे हैं, फिर भी मोतीराम कहते हैं कि कला वर्सो ट्रस्ट में वे बच्चों और नए गायकों को प्रशिक्षित कर रहे हैं ताकि यह धरोहर आगे बढ़े। वे याद करते हैं कि पहली बार उन्होंने अपने पिता के साथ कच्छ के गाँव में नवरात्रि पर डाकला गाया था। “1980 के दशक में गायक गाँव-गाँव जाकर प्रस्तुति देते थे और यही हमारी रोज़ी-रोटी का ज़रिया था। भुगतान हमेशा पैसे में नहीं होता था। हमें आटा, चावल, दाल या स्थानीय बुनी शॉल और रजाई दी जाती थी। उस समय यह पर्याप्त था। श्रोताओं की उम्मीदें और कलाकारों की ज़रूरतें उतनी ही सरल थीं, जितनी पारंपरिक डाकला की लय।”

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