केरल में शिशु मृत्यु दर में गिरावट की मिसाल, लेकिन दर्दनाक सच्चाई बरकरार

केरल ने शिशु मृत्यु दर घटाकर अमेरिका को भी पीछे छोड़ा, लेकिन धार्मिक कारणों से घर पर प्रसव की घटनाएँ अब भी राज्य की उपलब्धि पर सवाल उठाती हैं।;

Update: 2025-09-10 04:38 GMT

केरल इस हफ़्ते अंतरराष्ट्रीय सुर्ख़ियों में रहा, जब स्वास्थ्य मंत्री वीना जॉर्ज ने ऐलान किया कि राज्य की शिशु मृत्यु दर घटकर 1,000 जीवित जन्मों पर 5 रह गई है। यह आँकड़ा अमेरिका से भी कम है। लेकिन इसी खुशी के बीच एक दुखद ख़बर आई। धार्मिक कारणों से घर पर प्रसव कराने वाली महिला के नवजात शिशु की मौत हो गई। विडंबना यह है कि एक ओर राज्य वैश्विक स्तर पर शिशु स्वास्थ्य में नया कीर्तिमान बना रहा है, वहीं दूसरी ओर संस्थागत स्वास्थ्य सेवाओं से परहेज़ करने पर परिवारों को असमय त्रासदी झेलनी पड़ रही है।

वैश्विक स्तर पर केरल

केरल का प्रदर्शन अब फिनलैंड, जापान और क्यूबा जैसे देशों की श्रेणी में गिना जा रहा है, जहाँ शिशु मृत्यु दर बेहद कम है। भारत के महालेखाकार के नवीनतम नमूना पंजीकरण प्रणाली (SRS) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए वीना जॉर्ज ने कहा कि राष्ट्रीय औसत 26 के मुक़ाबले केरल का आँकड़ा 5 है।उन्होंने लिखा—“केरल की शिशु मृत्यु दर अब अमेरिका (5.6) से भी कम है। यह उपलब्धि राज्य की मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य सेवाओं की ताक़त को दर्शाती है।”

वर्षों की सुनियोजित मेहनत

केरल ने दशकों तक प्राथमिक स्वास्थ्य पर निवेश किया, महिलाओं की साक्षरता और सशक्तिकरण पर काम किया, और लगभग सार्वभौमिक संस्थागत प्रसव सुनिश्चित किया। आज ग्रामीण क्षेत्रों में 96% और शहरी इलाकों में 99% प्रसव अस्पतालों में होते हैं।नवजात गहन चिकित्सा इकाइयाँ (NICU) आदिवासी और तटीय क्षेत्रों तक पहुँचा दी गई हैं। ‘हृद्यम’ जैसी योजनाएँ (जन्मजात हृदय रोग का निःशुल्क इलाज) और ‘मातृयानम्’ (प्रसवोत्तर माताओं के लिए निःशुल्क परिवहन) ने भी ख़तरों को घटाया है।

टल सकने वाली त्रासदियां

इसी दौरान इडुक्की ज़िले में चेरुथोनी के पास एक नवजात की घर पर प्रसव के बाद मौत हो गई। माता-पिता ने धार्मिक कारणों से अस्पताल जाने से परहेज़ किया और पिता ने ही प्रसव कराया। एक अन्य घटना में घर पर प्रसव के दौरान महिला की मौत हो गई और शिशु को कुछ दिन जीवन रक्षक उपकरणों पर ज़िंदा रखा गया। स्वास्थ्य अधिकारियों ने कहा कि यदि प्रसव अस्पताल में होता तो यह त्रासदियाँ टल सकती थीं।

केरल का विरोधाभास

ये घटनाएं राज्य की शानदार उपलब्धियों के बीच अपवाद हैं, लेकिन यह सवाल उठाती हैं कि व्यापक नीतियां भी व्यक्तिगत मान्यताओं से कैसे प्रभावित हो सकती हैं। समस्या पहुँच की नहीं, बल्कि संस्थागत देखभाल से इनकार की है।स्वास्थ्य मंत्री वीना जॉर्ज ने कहा “डॉक्टर की चेतावनी के बावजूद कई बार परिवार अस्पताल में प्रसव कराने से मना कर देते हैं। यह बेहद जटिल स्थिति है।”

‘लास्ट माइल’ चुनौती

विशेषज्ञ इसे स्वास्थ्य सेवाओं की ‘लास्ट माइल’ चुनौती बताते हैं भौगोलिक पहुँच नहीं, बल्कि सामाजिक और वैचारिक प्रतिरोध। कोज़िकोड के वरिष्ठ पैथोलॉजिस्ट डॉ. के.पी. अरविंदन ने कहा ऐसे समूह दुनिया भर में सक्रिय हैं जो ‘प्राकृतिक जीवन’ के नाम पर अस्पताल प्रसव और टीकाकरण का विरोध करते हैं। यह महिलाओं और बच्चों के लिए घातक है। ऐसे मामलों में कठोर क़ानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।

आगे की राह

केरल ने आंकड़ों में दुनिया को चौंका दिया है, लेकिन असली चुनौती है कि हर माँ और हर बच्चे को इस प्रगति का लाभ मिले। स्वास्थ्यकर्मी लगातार घर-घर जाकर संवाद बना रहे हैं और सामुदायिक नेताओं से सहयोग ले रहे हैं।लेकिन हाल की त्रासदियां याद दिलाती हैं कि यात्रा अधूरी है। औसत आँकड़े चाहे जापान या फिनलैंड के बराबर हों, जब तक व्यक्तिगत मान्यताओं के कारण कोई मां या बच्चा असमय मौत का शिकार होता है, तब तक सफलता अधूरी रहेगी।

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