तमिलनाडु में पीएम मोदी का ‘चोल दांव’ क्या बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित होगा?

कई दौरों और सांस्कृतिक प्रयासों के बावजूद तमिलनाडु में भाजपा की जमीन क्यों नहीं बन रही? वरिष्ठ पत्रकार आर. रंगराज से समझिए;

Update: 2025-07-26 17:34 GMT

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमिलनाडु के तूतीकोरिन में 4,800 करोड़ रुपये की विकास परियोजनाओं की शुरुआत की है, लेकिन असली राजनीतिक असर को लेकर सवाल उठ रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार आर. रंगराज बताते हैं कि भाजपा द्वारा तमिलनाडु में बार-बार सांस्कृतिक प्रतीकों के सहारे, प्रतीकवाद और अधोसंरचना घोषणाओं के ज़रिए चुनावी पकड़ बनाने की कोशिशें आखिर क्यों बार-बार असफल रही हैं।

भाजपा तमिलनाडु में क्यों नाकाम रही?

मोदी और भाजपा ने तमिलनाडु में कई दौरों और गठबंधनों के बावजूद सफलता नहीं पाई। 2014 से अब तक उनके चुनावी नतीजे या तो ठहरे हुए हैं या गिरते गए हैं। 2014 में गठबंधन के साथ सिर्फ़ दो सीटें मिलीं, 2019 में घटकर एक हो गईं और 2024 में एक भी सीट नहीं मिली।

तमिलनाडु आज भी भाजपा के लिए आख़िरी चुनावी सीमा है। ऐतिहासिक रूप से भी देखें तो मौर्य या पांडव जैसे उत्तरी साम्राज्य दक्षिण के चोल या पांड्य राजवंशों को नहीं जीत पाए। इतिहास खुद को दोहरा रहा है।

अब जबकि उत्तर भारत और खासकर उत्तर प्रदेश में भाजपा को झटके लगे हैं, वह दक्षिण भारत में नई जमीन तलाश रही है, लेकिन अब तक कामयाबी नहीं मिली।

तमिल प्रतीकों जैसे चोल व तिरुवल्लुवर को हथियाने की कोशिश, क्या असर पड़ा?

भाजपा ने तिरुवल्लुवर को भगवा वस्त्रों में दिखाकर, रुद्राक्ष पहनाकर उन्हें एक हिन्दू प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की। यहां तक कि राज्यपाल आर. एन. रवि ने भी यही कोशिश की। लेकिन तिरुक्कुरल किसी एक धर्म का प्रचार नहीं करता — तिरुवल्लुवर एक सार्वभौमिक व्यक्ति माने जाते हैं। उन्हें एक धार्मिक पहचान तक सीमित करने की कोशिश उल्टी पड़ गई।

अब भाजपा चोल राजवंश की विरासत को अपने पाले में खींचना चाहती है,राजा राजा चोल और राजेन्द्र चोल को हिंदुत्व के प्रतीक के तौर पर पेश किया जा रहा है। लेकिन यह नैरेटिव भी नहीं चला।

राजा राजा चोल धार्मिक रूप से सहिष्णु थे। उन्होंने शैव ग्रंथों का संकलन करवाया, पर साथ ही बौद्धों को भी संरक्षण दिया। जब श्रीलंका में उनके जीवन पर खतरा था, तो उन्हें बौद्धों ने ही बचाया था। नागपट्टिनम में उन्होंने एक बौद्ध विहार भी बनवाया।


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क्या भाजपा का तमिल पहचान से जुड़ने का सांस्कृतिक प्रयास उल्टा असर डाल रहा है?

हाँ, ऐसा लगता है।

भाजपा ने समुदाय आधारित रणनीति अपनाने की कोशिश की: पहले नादर समुदाय से पोन राधाकृष्णन, फिर पश्चिमी तमिलनाडु में गौंडर समुदाय से अन्नामलाई और अब देवर समुदाय के लिए नैनार नागेन्द्रन को आगे किया गया।

लेकिन चोल गौरव को जातीय राजनीति से जोड़ना तमिल जनता को कृत्रिम और दिखावटी लग रहा है।

इतिहास में चोल सम्राट जाति और धर्म के परे माने जाते हैं। तमिल की पाँच प्रमुख महाकाव्य (epics) भी हिन्दुओं ने नहीं बल्कि जैनों और बौद्धों ने लिखीं।

इसलिए तमिल इतिहास को हिंदुत्व के चश्मे से देखने की भाजपा की कोशिश अप्राकृतिक और अवसरवादी लगती है।

क्या मुरुगन भक्तों का सम्मेलन भाजपा की छवि सुधार सका?

नहीं, बल्कि इसका उल्टा असर हुआ।

इस सम्मेलन में दिखाया गया एक वीडियो पेरियार और अन्नादुरई जैसे द्रविड़ आंदोलन के प्रतीकों का अपमान करता था। इससे न सिर्फ़ द्रमुक (DMK) बल्कि अन्नाद्रमुक (AIADMK) भी नाराज़ हो गई, जिनके नेता वहां मौजूद थे।

इससे भाजपा और अन्नाद्रमुक के रिश्तों में दरार की अटकलें तेज़ हुईं।

हर बार भाजपा तमिल पहचान को हिंदुत्व से जोड़ने की कोशिश करती है, लेकिन यह कोशिश तमिल जनता को बनावटी और चालाकी भरी लगती है।

क्या मोदी के विकास परियोजनाएं भाजपा को फायदा देंगी?

संभावना कम है।

तमिलनाडु लंबे समय से यह शिकायत करता रहा है कि केंद्र की ओर से फंड नहीं मिलते।

जैसे कि शिक्षा योजना के तहत 4,500 करोड़ रुपये रोक दिए गए हैं क्योंकि राज्य ने त्रिभाषा नीति (three-language formula) लागू नहीं की — यानी हिंदी थोपी जा रही है।

बाढ़ राहत फंड भी नाकाफी रहा।

2014 से कोई बड़ा केंद्रीय प्रोजेक्ट नहीं आया। मदुरै में AIIMS की घोषणा बहुत पहले हुई थी, लेकिन अब जाकर निर्माण शुरू हुआ है और इसमें भी कई साल लगेंगे।

क्या भाजपा को अब भी उत्तर भारतीय और उच्च जाति की पार्टी माना जाता है?

हाँ, तमिलनाडु में यह धारणा बनी हुई है।

भाजपा भले ही पिछड़े और दलित समुदायों के नेताओं को आगे लाए, पर यह दिखावटी लगता है क्योंकि नेतृत्व अब भी हिंदी भाषी और ऊँची जातियों के पास है।

दक्षिण में लोग अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा मानते हैं, लेकिन भाजपा के नेता लगातार हिंदी का इस्तेमाल करते हैं — इससे सांस्कृतिक प्रभुत्व की भावना गहराती है।

कीलाड़ी खुदाई को लेकर भाजपा की भूमिका को कैसे देखा जाता है?

काफी नकारात्मक रूप में। ASI और केंद्र सरकार ने कीलाड़ी रिपोर्ट दो साल से ज़्यादा वक्त तक रोकी रखी। खुदाई करने वाले वरिष्ठ पुरातत्वविद् अमरनाथ रामकृष्ण को साइडलाइन कर दिया गया।

यह माना जा रहा है कि भाजपा उस प्राचीन तमिल शहरी सभ्यता के साक्ष्य को दबाना चाहती है जो आर्यन नैरेटिव को चुनौती देता है। द्रमुक और अन्य क्षेत्रीय दलों ने इसे तमिल अस्मिता और इतिहास के खिलाफ साजिश बताकर भाजपा को घेरा है।

नतीजा?

2026 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव आने वाले हैं, लेकिन भाजपा के लिए राह आसान नहीं है। जब तक वह रणनीति नहीं बदलती और तमिल संस्कृति व अस्मिता का सच्चा सम्मान नहीं करती, तब तक न हिंदुत्व का एजेंडा चलेगा और न विकास का नैरेटिव।

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