अखिलेश यादव का नेशनल ड्रीम, क्या राहुल गांधी के लिए बन सकता है खतरा

अखिलेश यादव ने अब राज्य की जगह केंद्र की राजनीति में जाने का फैसला किया है. यहां समझने की कोशिश करेंगे की राहुल गांधी की राजनीति किस तरह प्रभावित हो सकती है.

By :  Lalit Rai
Update: 2024-06-12 05:20 GMT

Akhilesh Yadav News:  सियासत में कोई किसी का ना तो स्थाई दुश्मन और ना ही स्थाई दोस्त होता है. अगर ऐसा होता तो आम आदमी पार्टी- कांग्रेस, कांग्रेस-समाजवादी पार्टी, समाजवादी पार्टी-बीएसपी का ना तो मेल ना ही अलगाव होता. याद करिए कि लोकसभा चुनाव नतीजों से पहले ही आम आदमी पार्टी ने कहा कि दिल्ली में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं तो हरियाणा में कांग्रेस के कद्दावर नेता दीपेंद्र हुड्डा ने कहा कि विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस से गठबंधन नहीं होगा. इन सबके बीच हम बात करेंगे अखिलेश यादव के नेशनल ड्रीम की. आप सोच रहे होंगे ऐसा क्यों हैं.

अब देश की सियासत में अखिलेश यादव
अखिलेश यादव अब राज्य की राजनीति से हटकर देश की राजनीति करेंगे. उन्होंने करहल विधानसभा छोड़ने का ऐलान एक तरह से कर दिया है. अब यहीं से सवाल है कि अगर अखिलेश देश की सियासत का हिस्सा बनते हैं तो उनके दोस्त राहुल गांधी पर कितना असर पड़ेगा. क्या अखिलेश यादव यह मान कर चल रहे हैं कि यूपी में कांग्रेस नंबर दो की हैसियत पर ही रहेगी. इस सवाल का जवाब कांग्रेस की रणनीति पर निर्भर करेगा. लेकिन यहां हम समझने की कोशिश करेंगे कि क्या अखिलेश की राजनीतिक से राहुल पर असर पड़ेगा. पहली नजर में तो जवाब ना में ही होगा. बता दें कि कांग्रेस की तुलना में समाजवादी पार्टी का मुख्य तौर पर असर यूपी में ही. कुछ प्रभाव आप मध्य प्रदेश में मान सकते हैं.अब कांग्रेस का फैलाव कमोबेश देश के सभी हिस्सों में है. ऐसी सूरत में अगर समाजवादी पार्टी कांग्रेस से आगे तभी निकल सकती है जब उसका फैलाव और असर पूरे देश में हो.

एक अकेले यूपी से क्या होगा
अगर आप सिर्फ उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां की 80 सीटों पर क्या समाजवादी पार्टी फतह कर पाएगी. इसका जवाब यही है कि अगर अखिलेश यादव सभी सीटों पर चुनाव लड़ें और उनकी जबरदस्त लहर हो. लेकिन यह व्यवहारिक नहीं है. दूसरी वजह यह कि जब कांग्रेस के साथ वो गठबंधन की भूमिका में होंगे तो जाहिर सी बात है कि वो सभी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ पाएंगे. यूपी की 80 सीटें किसी भी दल को राजनीति में बारगेन करने का पावर तो दे सकती है. लेकिन सरकार बनाने के लिए तो सभी प्रदेशों में कुछ ना कुछ मौजूदगी होनी चाहिए. ऐसी सूरत में एक विकल्प यह हो सकता है कि पहले दोनों दल एक दूसरे की मदद से अपनी जमीन को पहले मजबूत करें. लेकिन यहां भी सवाल यही है कि कोई भी दल अपनी कीमत पर क्यों दूसरे को मजबूत करने देगा.

आम लोगों की राय
इस विषय पर यूपी के लोगों का क्या कहना है. आजमगढ़ के प्रवीण सिंह के मुताबिक राजनीति में हर कोई किसी दूसरे की कीमत पर ही आगे बढ़ता है. अब आप चंद्रशेखर आजाद को देखिए. बीएसपी का पूरे प्रदेश में जाटव समाज में आधार हुआ करता था.लेकिन चंद्रशेखर की नगीना की जीत उदाहरण है कि मतदाता किसी एक के पाले में हमेशा नहीं बने रह सकते. उन्हें भी बेहतर विकल्प की जरूरत होती है. जहां तक अखिलेश यादव और राहुल गांधी की दोस्ती का सवाल है तो तात्कालिक वजह बीजेपी खासतौर से नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता है. लेकिन जिस दिन बीजेपी के सूरज की तेज धीमी होने लगेगी उसके बाद ये दोनों लोग एक साथ होंगे कहना मुश्किल है.

गौतमबुद्ध नगर के रहने वाले मोहन सिंह का कहना है कि समय बलवान होता है. आप सात साल पहले देखिए अखिलेश यादव और राहुल की जोड़ी कुछ भी नहीं कर पायी. लेकिन इस दफा यूपी में कमाल कर दिया. दरअसल सियासत के बारे लोगों के मिजाज का आकलन आप सटीक नहीं कर सकते हैं. फर्ज करिए कि अगर अयोध्या के सांसद लल्लू सिंह ने 400 पार के नारे को संविधान बदले ना जाने से जोड़ा होता तो क्या यही स्थिति बनती. इस समय राहुल गांधी और अखिलेश यादव तात्कालिक वजहों से एक साथ आए हैं. लेकिन समय बीतने के साथ दूरी बढ़ जाएगी.

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