शिबू सोरेन ने बेटे को सौंप दी पार्टी, खुद संरक्षक की भूमिका में होंगे

झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के संस्थापक शिबू सोरेन ने पार्टी की बागडोर अब अपने बेटे और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को सौंप दी है। JMM का ये नया अध्याय है।;

Update: 2025-04-16 10:20 GMT
शिबू सोरेन लगभग 38 साल तक झारखंड मुक्ति मोर्चा का नेतृत्व करते रहे। अब कमान उन्होंने बेटे हेमंत सोरेन को सौंप दी है

पांच रुपये के एक नोट से अब भले ही कुछ बदले या न बदले, एक जमाने में पांच रुपये ने शिबू सोरेन की जिंदगी बदल दी थी। शिबू सोरेन, जिन्हें उनके समर्थक, उनके प्रशंसक और उनकी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी जेएमएम के नेता और कार्यकर्ता 'गुरुजी' कहकर संबोधित करते हैं, उन्हीं शिबू सोरेन ने एक बड़ा फैसला लिया है।

ऐसा फैसला जिससे झारखंड मुक्ति मोर्चा मेंं एक नए अध्याय की शुरुआत हो गई है। जेएमएम के संस्थापक शिबू सोरेन ने पार्टी की बागडोर अब अपने मुख्यमंत्री बेटे हेमंत सोरेन को सौंप दी है।

JMM : शिबू सोरेन से हेमंत सोरेन तक

लगभग 38 वर्षों तक पार्टी का नेतृत्व करने के बाद अब शिबू सोरेन JMM के संस्थापक संरक्षक की भूमिका में रहेंगे। यह एक नई राजनीतिक पारी की शुरुआत है, लेकिन इसके पीछे की कहानी संघर्ष, बलिदान और सामाजिक बदलाव से भरी हुई है।

पिता की हत्या और राजनीति की ओर पहला कदम

11 जनवरी 1944 को हजारीबाग (अब रामगढ़) जिले के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन की 27 नवंबर 1957 को हत्या कर दी गई। वे चाहते थे कि उनके बेटे पढ़-लिखकर कुछ बनें, इसलिए उन्हें आदिवासी छात्रावास में भेजा।

लेकिन एक जमीन विवाद में गांव के महाजनों से मतभेद के चलते उनकी हत्या हो गई। इस घटना ने शिबू की दुनिया बदल दी। पढ़ाई से उनका मन उचट गया और उन्होंने घर छोड़ दिया।

संघर्ष की शुरुआत: पाँच रुपये और चावल का हांडा

शिबू ने अपने बड़े भाई राजाराम से हजारीबाग जाने के लिए पाँच रुपये मांगे। जब पैसे नहीं मिले तो घर में माँ द्वारा एकत्रित "हांडा" के चावल को बेचकर वो पैसे जुटाए गए।

यही पाँच रुपये शिबू सोरेन के संघर्ष की शुरुआत बने। हजारीबाग पहुँचकर वे फारवर्ड ब्लॉक नेता लाल केदान नाथ सिन्हा के संपर्क में आए और छोटी-मोटी ठेकेदारी और मजदूरी से जीवन शुरू किया।

राजनीतिक यात्रा की नींव: समाज सेवा और आंदोलन

समाज सेवा के इरादे से उन्होंने महाजनी प्रथा, शराब और अशिक्षा के खिलाफ अभियान चलाया। उन्होंने "सोनोत संथाल समाज" की स्थापना की, जो बाद में आदिवासी सुधार समिति बनी। इसी दौरान वे विनोद बिहारी महतो और ए.के. राय के संपर्क में आए। 1972 में "झारखंड मुक्ति मोर्चा" का गठन हुआ।

आंदोलनों की अगुवाई

झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन के बाद शिबू सोरेन ने कई आंदोलनों की अगुआई की। उन्होंने न सिर्फ आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष किया बल्कि जेएमएम के गठन के बाद कई बड़े आंदोलनों का नेतृत्व किया।

जैसे, 1972 में धनबाद के कुड़को गांव में पुलिस फायरिंग में तीन कार्यकर्ता मारे गए थे, 1974 में विष्णुगढ़ में सीआरपीएफ से टकराव हुआ तो 1977 में टाटा कंपनी के खिलाफ आंदोलन के दौरान हत्या हो गई।

यही नहीं, 1979 में गोधर कोलियरी में पुलिस लाठीचार्ज से मौतें हुईं। 1978 में संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम लागू करवाने की मांग पर दुमका में विशाल रैली हुई, जिसमें पुलिस से भिड़ंत के दौरान 150 राइफलें जब्त की गई थीं, जो बाद में लौटा दी गईं।

राजनीतिक मुकाम और विवाद

1975 के चिरूडीह नरसंहार और कुड़को हत्याकांड में शिबू सोरेन के खिलाफ मुकदमे चले। 1990 में लालू प्रसाद यादव की सरकार बनाने में जेएमएम के 19 विधायकों की अहम भूमिका रही। बाद में झारखंड बनने के बाद शिबू सोरेन वहां के मुख्यमंत्री रहे।

संसदीय राजनीति में शिबू सोरेन

शिबू सोरेन ने 1977 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन जीत नहीं पाए। लेकिन बाद में 1980, 1989, 1991 और 1996 में वो दुमका से सांसद निर्वाचित हुए। साल 2002 में वो राज्यसभा पहुंचे। फिर 2004, 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव में वो सांसद निर्वाचित हुए। 2019 में दुमका से हार के बाद शिबू सोरेन तीसरी बार राज्यसभा सदस्य बने।

अगली पीढ़ी को नेतृत्व

अब पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की बागडोर शिबू सोरेन ने औपचारिक तौर पर अपने बेटे और वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के हाथों में सौंप दी है। यह केवल पीढ़ीगत बदलाव नहीं, बल्कि दशकों के संघर्ष और अनुभव की विरासत का हस्तांतरण है।

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