ढाका से दिल्ली तक गूंजा शिबिर का असर, बीएनपी सिमटी हाशिये पर

ढाका यूनिवर्सिटी चुनाव में जमात-ए-इस्लामी की छात्र इकाई शिबिर की जीत से बांग्लादेश और भारत में चिंता बढ़ी, इस्लामवादियों का प्रभाव तेजी से फैल रहा है।;

Update: 2025-09-12 01:07 GMT
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जमात-ए-इस्लामी की छात्र इकाई इस्लामी छात्र शिबिर ने ढाका यूनिवर्सिटी छात्र संघ चुनाव में जोरदार जीत दर्ज की है। इस परिणाम ने बांग्लादेश और भारत दोनों में, खासकर मध्यमार्गी और धर्मनिरपेक्ष वर्गों के बीच गहरी चिंता पैदा कर दी है। प्रो पाकिस्तान जमात-ए-इस्लामी का इतिहास भारत-विरोधी भावनाएं भड़काने और बांग्लादेश में अस्थिरता फैलाने से जुड़ा रहा है।

इस्लामवादियों का तेज़ प्रसार

ढाका यूनिवर्सिटी को लंबे समय से देश का राजनीतिक बैरोमीटर माना जाता रहा है। शिबिर की जीत इस बात का संकेत है कि पोस्ट-हसीना बांग्लादेश में इस्लामवादियों का असर तेज़ी से और व्यापक रूप से फैल रहा है। इस बीच, नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली इस्लामी प्रभाव वाली कार्यवाहक सरकार ने धीरे-धीरे शेख मुजीबुर रहमान और शेख हसीना की भूमिकाओं को समकालीन इतिहास से मिटाना शुरू कर दिया है। पाकिस्तान की जमात-ए-इस्लामी के नेता हाफ़िज़ नईमुर रहमान ने इसे "ऐतिहासिक जीत" बताते हुए उम्मीद जताई कि यह बांग्लादेश को भारत की साज़िश से मुक्त कराएगी।

राजनीतिक मायने और चिंता

जमात से जुड़े छात्रों की ढाका यूनिवर्सिटी में कभी गंभीर मौजूदगी नहीं रही थी। यह वही संस्था है जिसने बंगाली राष्ट्रवाद को धार दी और 1971 के मुक्ति संग्राम की नींव रखी। अब इस विश्वविद्यालय पर उन इस्लामवादियों का कब्ज़ा होना, जिनका लक्ष्य बांग्लादेश को इस्लामी राज्य में बदलना है, देश के अभिजात वर्ग और बुद्धिजीवियों को परेशान कर रहा है। और भी चिंता की बात यह है कि शिबिर ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी  बीएनपी की छात्र इकाई छात्र दल  को भारी अंतर से हराया है, वह भी तब जब 2026 फरवरी में आम चुनाव होने वाले हैं।

पाकिस्तान-बांग्लादेश रिश्तों में नई नज़दीकी

यह जीत ऐसे समय आई है जब लंबे अंतराल के बाद बांग्लादेश-पाकिस्तान रिश्तों में नई ऊष्मा दिख रही है। हाल के महीनों में दोनों देशों के बीच राजनीतिक, सैन्य, खुफिया और व्यापारिक प्रतिनिधिमंडलों का नियमित आदान-प्रदान हुआ है। ढाका के पूर्व राजनयिक हुमायूं कबीर कहते हैं  परिस्थितियाँ ऐसे बदल रही हैं जिन्हें हम अनुमान भी नहीं लगा पा रहे।

ढाका यूनिवर्सिटी की ऐतिहासिक भूमिका

1921 में स्थापित ढाका यूनिवर्सिटी ने बांग्लादेश के इतिहास में अहम भूमिका निभाई है। 1971 के मुक्ति संग्राम में यह धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रवादी विचारों का गढ़ बनी। पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों का मुख्य निशाना बनने के बावजूद इसने स्वतंत्रता की राह तैयार की। आज राजनीतिक परिदृश्य में स्थिति उलटती दिख रही है, क्योंकि जमात-ए-इस्लामी की मदद से शिबिर ने छात्र राजनीति पर नियंत्रण कर लिया है।

बीएनपी के लिए खतरे की घंटी

शेख हसीना के सत्ता से बाहर होने और उनकी पार्टी अवामी लीग की अव्यवस्था के बाद, बीएनपी खुद को अगली सरकार का दावेदार मान रही थी। लेकिन पार्टी के भीतर फैले भ्रष्टाचार और गुटबाज़ी ने जनता को निराश कर दिया है। लोगों को अवामी लीग और बीएनपी में अब खास फर्क नहीं दिख रहा। ऐसे में शिबिर की जीत आगामी संसदीय चुनावों का पूर्वाभास भी हो सकती है।

छात्रों में असंतोष और शिबिर की रणनीति

पिछले साल के आंदोलनों की गूंज और ढाका यूनिवर्सिटी में शिबिर की ‘साफ छवि’, साथ ही सुनियोजित चुनावी रणनीति ने उनकी अप्रत्याशित जीत सुनिश्चित की। हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक सालेहुद्दीन अहमद चेतावनी देते हैं कि ढाका में भले ही शिबिर ने अच्छा प्रदर्शन किया हो, लेकिन चिटगांव और राजशाही विश्वविद्यालयों में उनकी हिंसक भूमिका चिंताजनक रही है।

भारत के लिए खतरे की घंटी

ढाका यूनिवर्सिटी चुनाव का नतीजा भारत के लिए भी चिंता का विषय है। इस्लामवादियों का बढ़ता प्रभाव और भारत-विरोधी राजनीति, बांग्लादेश के मध्यमार्गी और धर्मनिरपेक्ष वर्गों को हाशिये पर धकेल सकती है। अतीत में भी भारत को बांग्लादेश से आने वाले आतंक और अस्थिरता का सामना करना पड़ा है। शेख हसीना ने भले ही अपने तानाशाही रुझानों के लिए आलोचना झेली हो, लेकिन उन्होंने भारत की सुरक्षा चिंताओं को संतुलित रखा था। उनके जाने के बाद पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों और इस्लामी उग्रवादियों को भारत के खिलाफ संगठित होने का मौका मिल गया है।

विशेषज्ञ मानते हैं कि म्यांमार की अस्थिरता और पूर्वोत्तर भारत की संवेदनशील स्थिति को देखते हुए, ढाका यूनिवर्सिटी का यह नतीजा भारत को और सतर्क कर देना चाहिए।

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