केंद्र ने पंजाब विश्वविद्यालय की गवर्नेंस में क्या बदला और क्यों मचा राजनीतिक बवाल?

पंजाब विश्वविद्यालय की दो प्रमुख शासी संस्थाएँ भंग कर दी गई हैं, जिससे वे अब अधिकतर नामित निकायों (nominated entities) में बदल गई हैं; इन व्यापक बदलावों पर कानूनी आपत्तियाँ क्या हैं?

Update: 2025-11-08 05:13 GMT
पंजाब विश्वविद्यालय का पुराना शासकीय मॉडल इसलिए विशिष्ट माना जाता था क्योंकि विश्वविद्यालय की दो प्रमुख शासी संस्थाओं — सीनेट और सिंडिकेट — में पंजाब और चंडीगढ़ के विभिन्न हिस्सों से चुने गए प्रतिनिधियों की बड़ी संख्या शामिल होती थी।

केंद्र सरकार के इस कदम को “तानाशाहीपूर्ण” और “असंवैधानिक” बताया जा रहा है। शिक्षा मंत्रालय ने 28 अक्टूबर को पंजाब पुनर्गठन अधिनियम, 1966 की धारा 72 के तहत अधिसूचना जारी कर पंजाब विश्वविद्यालय की दो प्रमुख संस्थाओं — सीनेट और सिंडिकेट — का पुनर्गठन किया, जिससे ये दोनों मुख्यतः निर्वाचित निकाय अब भंग हो गए हैं।

इन व्यापक बदलावों के तहत, सीनेट — जिसमें पहले लगभग 90 सदस्य होते थे — अब घटकर सिर्फ 30 सदस्यों की एक छोटी संस्था रह जाएगी, और निर्वाचित सीटों की संख्या में भी भारी कमी की गई है।

ग्रेजुएट निर्वाचन क्षेत्र, जिसमें पंजाब और आस-पास के इलाकों से चुने गए 16 पूर्व छात्र सदस्य होते थे, उसे पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है।

नई संरचना में पहली बार चंडीगढ़ के सांसद, संघ शासित प्रदेश के मुख्य सचिव और शिक्षा सचिव को शामिल किया गया है। इसके अलावा पंजाब के वरिष्ठ अधिकारी भी पदेन सदस्य होंगे।

सिंडिकेट — जो विश्वविद्यालय की सर्वोच्च कार्यकारी संस्था है — को भी अब पूरी तरह नामित निकाय बना दिया गया है।

अधिसूचना में यह भी कहा गया है कि , “सिंडिकेट अपने किसी भी कार्यकारी कार्य को कुलपति या सिंडिकेट के सदस्यों में से गठित किसी उप-समिति को सौंप सकती है…”

आलोचकों का कहना है कि इससे कुलपति को अतिरिक्त शक्तियाँ मिल गई हैं।

शिक्षा का भगवाकरण?

पंजाब विश्वविद्यालय के छात्र नेता रमनप्रीत सिंह ने कहा कि ये निकाय पिछले एक साल से काम नहीं कर रहे थे।

सिंह ने The Federal से कहा, “पिछले साल कई विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें 100 दिन का धरना भी शामिल था, क्योंकि सीनेट के चुनाव नहीं हो रहे थे। यह आशंका थी कि केंद्र सरकार सीनेट को समाप्त कर देगी और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार नई शासकीय संरचनाएँ बनाएगी… अब यह अधिसूचना आ गई है, जिससे पंजाब की भूमिका पूरी तरह खत्म हो गई है।” 

पूर्व सीनेट सदस्य प्रोफेसर चमन लाल ने कहा कि यह मामला जितना बताया जा रहा है, उससे कहीं बड़ा है। प्रोफेसर लाल ने कहा, “यह न केवल लोकतांत्रिक संरचना के विनाश की दिशा में एक और कदम है, बल्कि शिक्षा के भगवाकरण की ओर भी। यह एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय था, जो अभी तक लोकतांत्रिक ढांचे के साथ चल रहा था — और अब केंद्र सरकार ने उसे भी समाप्त कर दिया, जबकि यह विभाजन-पूर्व पंजाब की विरासत का हिस्सा था।”

तो, पंजाब विश्वविद्यालय का पूर्व शासकीय ढांचा क्या था, केंद्र सरकार के इन बदलावों पर कानूनी आपत्तियाँ क्यों हैं, और यह मुद्दा इतना बड़ा राजनीतिक विवाद क्यों बन गया है?

पंजाब विश्वविद्यालय की उत्पत्ति क्या है?

पंजाब विश्वविद्यालय की स्थापना वर्ष 1882 में लाहौर में हुई थी, जिससे यह क्षेत्र के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक माना जाता है।

विभाजन के बाद इसे पंजाब विश्वविद्यालय अधिनियम 1947 के तहत पुनर्गठित किया गया और यह विभाजन-पूर्व पंजाब के क्षेत्रों की सेवा करता रहा।

साल 1966 के पुनर्गठन के बाद विश्वविद्यालय का दायरा मुख्य रूप से चंडीगढ़ और वर्तमान पंजाब राज्य तक सीमित रह गया।

पहले का शासन मॉडल क्या था और इसे विशिष्ट क्यों माना जाता था?

इसका शासन ढांचा इसलिए अनोखा माना जाता था क्योंकि विश्वविद्यालय की दो प्रमुख शासी संस्थाएँ — सीनेट और सिंडिकेट — में पंजाब और चंडीगढ़ के विभिन्न हिस्सों से चुने गए प्रतिनिधि बड़ी संख्या में शामिल होते थे।

ऐतिहासिक रूप से, सीनेट में लगभग 90 सदस्य होते थे, जिनमें प्राचार्य, संबद्ध कॉलेजों के शिक्षक, विश्वविद्यालय के फैकल्टी सदस्य और ग्रेजुएट निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए स्नातक प्रतिनिधि शामिल थे।

सिंडिकेट, जो विश्वविद्यालय की कार्यकारी शक्ति का प्रयोग करती थी, सीनेट के सदस्यों में से ही चुनी जाती थी।

इस व्यवस्था से विश्वविद्यालय की गवर्नेंस में प्रतिनिधित्व का चरित्र बना रहता था — यानी पूर्व छात्र, शिक्षक, कॉलेज प्राचार्य और फैकल्टी सदस्य सीधे तौर पर निर्णय प्रक्रिया का हिस्सा होते थे।

लेकिन 28 अक्टूबर की अधिसूचना के तहत अब इस ढांचे को काफी हद तक नामित और पदेन सदस्यों पर आधारित मॉडल में बदल दिया गया है।

इस अधिसूचना के खिलाफ कानूनी आपत्तियाँ क्या हैं?

कांग्रेस सांसद और वकील मनीष तिवारी ने कहा है कि केंद्र सरकार को पंजाब पुनर्गठन अधिनियम की धारा 72 के तहत अधिसूचना जारी कर पंजाब विश्वविद्यालय की गवर्नेंस संरचना बदलने का कोई अधिकार नहीं है।

उन्होंने एक्स पर लिखा कि धारा 72 के तहत ऐसा करना “कानूनी रूप से गलत और न्यायिक विडंबना” है।

तिवारी के अनुसार, पंजाब विश्वविद्यालय की स्थापना पंजाब विश्वविद्यालय अधिनियम 1947 के तहत हुई थी — जो एक ईस्ट पंजाब अधिनियम (Act 7 of 1947) है, जिसे 26 नवंबर 1947 को ईस्ट पंजाब के गवर्नर की स्वीकृति प्राप्त हुई थी।

उन्होंने कहा,“1947-1956 के ईस्ट पंजाब की उत्तराधिकारी विधानसभा और 1956-1966 के एकीकृत पंजाब विधानसभा के बाद, सिर्फ पंजाब विधानसभा (विदान सभा) को ही अधिकार है कि वह पंजाब विश्वविद्यालय अधिनियम 1947 में संशोधन करे — यदि विश्वविद्यालय की सीनेट या सिंडिकेट की संरचना और स्वरूप में बदलाव करना है।”

(मनीष तिवारी, एक्स पोस्ट पर)

छात्रों ने भी यह सवाल उठाया है कि मंत्रालय ने यह अधिसूचना इस तरह कैसे जारी कर दी। पंजाब यूनिवर्सिटी (PU) के छात्र नेता दिव्यांश ठाकुर ने कहा, “उन्होंने साफ तौर पर नहीं कहा है, लेकिन उन्होंने सीनेट और सिंडिकेट की मूल संरचना ही बदल दी है। यह संबंधित कानून में संशोधन किए बिना कैसे हो सकता है? अगर करना ही था, तो उचित विधिक प्रक्रिया से होना चाहिए था।”

पंजाब की राजनीतिक पार्टियाँ इस अधिसूचना का विरोध क्यों कर रही हैं, और यह इतना बड़ा राजनीतिक विवाद क्यों बन गया है?

पंजाब यूनिवर्सिटी लंबे समय से राज्य की राजनीतिक और बौद्धिक पहचान का केंद्र रही है। यह विश्वविद्यालय लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं की शिक्षा का केंद्र रहा है।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज, पवन कुमार बंसल, और वर्तमान मुख्यमंत्री भगवंत मान — सभी इसी संस्था के पूर्व छात्र हैं।

इतनी पुरानी और ऐतिहासिक संस्था पर केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा “केंद्रीकरण” और “पुनर्गठन” का कदम पंजाब में यह भावना पैदा कर रहा है कि राज्य के संघीय ढाँचे पर सीधा हमला किया जा रहा है।

केंद्र और राज्य के बीच यह टकराव अब सिर्फ प्रशासनिक नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतीकवाद का रूप ले चुका है।

राजनीतिक नेता इस बदलाव से इतने नाराज़ क्यों हैं?

पंजाब के राजनीतिक नेताओं का मानना है कि यह सिर्फ एक विश्वविद्यालय पर हमला नहीं, बल्कि पूरे पंजाब की स्वायत्तता पर प्रहार है।

आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल — तीनों ने इस कदम का कड़ा विरोध किया है।

यह पंजाब की राजनीति में एक दुर्लभ एकजुटता का उदाहरण है।

पंजाब के वित्त मंत्री हरपाल सिंह चीमा ने The Federal से कहा, “चुनी हुई संस्थाओं को नामित संस्थाओं से बदलना भाजपा द्वारा संघीय ढाँचे पर सीधा हमला है। यह विश्वविद्यालय न केवल क्षेत्र का बल्कि देश का भी सबसे पुराना विश्वविद्यालयों में से एक है, जिसने महान पूर्व छात्र दिए हैं। भाजपा इस विश्वविद्यालय के साथ विश्वासघात कर रही है। उसे पंजाब से नफरत है।”

शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने भी इसे पंजाब पर हमला बताया।

उन्होंने X पर लिखा, “मैं पंजाब यूनिवर्सिटी की सीनेट को भंग करने और उसमें पंजाब की भागीदारी समाप्त करने के केंद्र सरकार के फैसले की कड़ी निंदा करता हूँ। यह देश की संघीय संरचना का अपमान है और पंजाब की शैक्षणिक और बौद्धिक विरासत पर हमला है।”

उन्होंने आगे कहा, “केंद्र सरकार ने पंजाब की परवाह किए बिना यह एकतरफा अध्यादेश जारी किया है और पंजाब को उसकी विरासत, गर्व और गरिमा से अलग कर दिया है। यह पंजाब पर एक और असहनीय चोट है।”

मुख्यमंत्री भगवंत मान ने भी इस निर्णय की खुलकर आलोचना की है। उन्होंने इसे “असंवैधानिक” और “तानाशाहीपूर्ण” करार देते हुए कहा कि राज्य सरकार इस मामले को कानूनी रूप से चुनौती देगी।

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