शोले का रामनगरा, गब्बर की गूंज से गिद्धों के बसेरा तक
शोले की पृष्ठभूमि रहा रामनगरा अब गिद्धों का अभयारण्य बन चुका है। फ़िल्मी सेट अस्तित्व में नहीं अब उनकी जगह जंगल है जो ट्रैकर्स के लिए नया हॉटस्पॉट बन चुका है।;
कभी 1975 की ब्लॉकबस्टर शोले की शूटिंग का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रहा रमनगरा का सूखा, पथरीला इलाका आज एक पर्यावरण-अनुकूल अभयारण्य में बदल चुका है जहां अब लुप्तप्राय गिद्धों का बसेरा है। यहां जंगल और प्रकृति ने सिनेमा की जगह ले ली है। भारत की सबसे महान फिल्म के सेट अब पूरी तरह हटा दिए गए हैं और उनकी जगह हरियाली और पेड़ों से ढके वन ने ले ली है।
वह इलाका, जो कभी गोलियों की आवाज़, दौड़ते घोड़ों की टाप और मशहूर डायलॉग—तेरा क्या होगा कालिया, जो डर गया समझो वो मर गया, इन कुत्तों के सामने मत नाच, बसंती!, और ये दोस्ती गीत से गूंजता था, आज ट्रैकिंग के शौकीनों का हॉटस्पॉट है। बेंगलुरु से आने वाले युवा टेक्नोलॉजी पेशेवर यहां पथरीली पहाड़ियों और शानदार नज़ारों के लिए खिंचे चले आते हैं। कोई खड़ी, पथरीली चढ़ाई चढ़ने की चुनौती का मज़ा लेता है, तो कोई 400 चौड़ी सीढ़ियों को पार कर प्राचीन राम मंदिर तक पहुंचता है जहां से चारों तरफ़ के पहाड़ी नज़ारे मन मोह लेते हैं।
अब जंगल का राज
कभी अनौपचारिक तौर पर सिप्पी नगर के नाम से मशहूर यह जगह, बेंगलुरु से मात्र 40 किलोमीटर दूर, शोले की शूटिंग के दौरान सितारों और क्रू की मेज़बानी के लिए जानी जाती थी। आज फ़िल्मी सेट के सारे निशान ग़ायब हैं।वन विभाग ने इन्हें गिराकर ज़मीन को फिर से प्रकृति को लौटा दिया। इनकी जगह अब रामदेवर बेट्टा अभयारण्य है—800 एकड़ में फैला यह इलाका लंबी चोंच वाले गिद्ध, मिस्री गिद्ध और सफेद पीठ वाले गिद्धों का घर है। विडंबना यह है कि यहाँ ऐसे लुप्तप्राय पक्षियों की संख्या अब महज़ चार के आसपास रह गई है।
थीम पार्क का विरोध
2017 में कर्नाटक सरकार ने यहाँ शोले गांव थीम पार्क बनाने का प्रस्ताव दिया, ताकि इलाके की सिनेमाई पहचान को फिर से जीवित किया जा सके। लेकिन पर्यावरणविदों ने गिद्धों और पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले खतरे का हवाला देकर इसका विरोध किया। नतीजा प्रकृति की जीत हुई और अभयारण्य बचा रहा। आज इसकी हरियाली में वह पथरीला, सूखा और अलग दिखने वाला इलाका पूरी तरह छिप चुका है, जो कभी फिल्म में साफ़ नज़र आता था।
हर सप्ताह बेंगलुरु और आसपास से 1,000 से 2,000 पर्यटक रामदेवर बेट्टा पहुंचते हैं। इन युवाओं में से ज़्यादातर को शोले से इसका रिश्ता पता नहीं ख़ासकर गैर-हिंदी भाषी पर्यटकों को। हां, कुछ हिंदी भाषी ट्रैकर्स और फ़िल्म प्रेमी, जैसे बेंगलुरु के अंशु किशोर और सारांश, यहां आकर खुद को फ़िल्म के दृश्यों में महसूस करने की कोशिश करते हैं।
"करी वेस्टर्न" का जादू
शोले, एक बदला लेने की कहानी दरअसल अच्छाई और बुराई की जंग थी, जो काल्पनिक गांव रामगढ़ में लड़ी जाती है। दो छोटे अपराधी जय और वीरू (अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र) को पूर्व जेलर ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) किराए पर रखते हैं, ताकि निर्दयी डकैत गब्बर सिंह (अमजद खान) को पकड़ा जा सके जो भारतीय सिनेमा के सबसे मशहूर खलनायकों में गिना जाता है।
तीन साल में बनी यह फ़िल्म सांस्कृतिक लहर बन गई। इसके संवाद आज भी सोशल मीडिया पर छाए रहते हैं, शादियों में बोले जाते हैं, और राजनीतिक भाषणों में तंज कसने के लिए इस्तेमाल होते हैं। करी वेस्टर्न कही जाने वाली शोले में अमेरिकी वेस्टर्न फ़िल्मों और जापानी फ़िल्म सेवन सामुराई की झलक थी। यह मुंबई के 1,500 सीट वाले मिनर्वा थियेटर में लगातार पांच साल तक चली।
आज जब यह फ़िल्म 50 साल की हो रही है, दुनियाभर में प्रशंसक इसे याद कर रहे हैं। इटली में इसकी रिस्टोर की हुई कॉपी दिखाई गई, और ईरान में इसके सम्मान में पूरे पेज का विज्ञापन निकाला गया।
बदलता परिदृश्य
रामदेवर बेट्टा में अब भी एक गाइड कुछ बचे-खुचे फ़िल्मी लोकेशन दिखा देता है, मगर आज खुद निर्देशक रमेश सिप्पी भी इन्हें पहचानने में कठिनाई महसूस करेंगे। जो इलाका कभी कठोर, सूखी और नाटकीय पृष्ठभूमि के लिए जाना जाता था, वह अब घने जंगल से ढका है। यहाँ कभी डेविड लीन की ए पैसेज टू इंडिया और कई कन्नड़ फ़िल्मों की शूटिंग भी हुई थी।
गब्बर की गूंज
एक पर्यटक अफ़सोस के साथ कहता है भारतीय सिनेमा की कहानियां मिटाई जा रही हैं। रामनगर में अब शोले के कोई चिन्ह नहीं बचे। आज यहां सिर्फ़ श्रद्धालु और ट्रैकर्स आते हैं। गब्बर सिंह की डरावनी आवाज़, घोड़ों की टाप, जय का बलिदान, वीरू की शरारत और बसंती की चहक ये सब अब सिर्फ़ यादों में ही ज़िंदा हैं। वक्त के साथ शायद आने वाली पीढ़ी पूछे “गब्बर कौन?”