शाह बानो से शाज़िया बानो तक, औरत के ‘हक़’ की अदालती पुकार

सुपर्ण वर्मा की ‘हक़’ एक ऐसी औरत की कहानी है जो अपने हक़ के लिए पति, समाज और धर्म से लड़ती है। यामी गौतम का दमदार अभिनय फिल्म की आत्मा बनता है।

Update: 2025-11-08 04:00 GMT

Haq Review: सुपर्ण एस. वर्मा की फिल्म ‘हक़’ का शीर्षक जितना सरल लगता है, उसके मायने उतने ही गहरे और बहुआयामी हैं। यह शब्द फिल्म में कई अर्थों में इस्तेमाल होता है व्यक्तिगत, सामाजिक और धार्मिक। व्यक्तिगत स्तर पर यह एक पति-पत्नी के वैवाहिक विवाद से जुड़ा है, जहां ‘हक़’ का अर्थ दो विपरीत दिशाओं में जाता है अधिकार और हक़दारी।

फिल्म की कहानी है अब्बास खान (इमरान हाशमी) और शाज़िया बानो (यामी गौतम धर) की। अब्बास 1970 के दशक के प्री-इमरजेंसी भारत का एक सफल वकील है, जो एक दिन यह महसूस करता है कि भले ही उसकी एक पत्नी और तीन बच्चे हों, उसे दूसरी शादी करने का हक़ है। दूसरी ओर, शाज़िया, जिसने अपने निकाह के समय सबके सामने अब्बास को स्वीकार किया था, महसूस करती है कि दूसरी औरत के आने से उसका वैवाहिक अधिकार छिन गया है।

शुरुआत में शाज़िया इसका विरोध करती है, लेकिन अब्बास उसे झूठे भरोसे में डालता है कि वह ही उसकी असली बेगम है और दूसरी शादी महज़ एक मजबूरी। मगर अब्बास का छल जल्द ही उजागर हो जाता है। उसका हक़दारी का भ्रम इस कदर गहरा है कि अपने अपराधों की सज़ा का फैसला भी वह खुद करने लगता है।

अपनी गरिमा और आत्मसम्मान के लिए शाज़िया अपने मायके लौट आती है तीन बच्चों और कुछ सामान के साथ। उसका पिता, एक स्थानीय मौलवी, आर्थिक रूप से कमजोर है, इसलिए बच्चों के पालन-पोषण के लिए अब्बास से गुज़ारा भत्ता आवश्यक है। लेकिन जब अब्बास अपने अहंकार में इस मदद को बंद कर देता है, तब शाज़िया अपने हक़ के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाती है। यही वह मोड़ है जहां से फिल्म सामाजिक और धार्मिक स्तर पर एक बड़ी बहस में प्रवेश करती है।

नैतिक और सामाजिक संघर्ष की कहानी

यह फिल्म मशहूर शाह बानो केस (1985) से प्रेरित है — वह ऐतिहासिक मामला जिसने भारत में धर्मनिरपेक्षता और महिलाओं के अधिकारों की बहस को झकझोर दिया था। ‘हक़’ इसी संघर्ष को समकालीन दृष्टि से प्रस्तुत करती है, जहां धार्मिक पहचान, कानून और नैतिकता के बीच संघर्ष आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

निर्देशक वर्मा और लेखिका रेशु नाथ का उद्देश्य शायद यह दिखाना है कि न्यायपालिका ने कभी किस तरह पहचान की राजनीति के ऊपर उठकर ‘हक़’ और ‘इंसाफ’ के मूल सिद्धांतों को कायम रखा। फिल्म यह भी रेखांकित करती है कि स्त्रियों के अधिकारों की लड़ाई केवल सामाजिक नहीं, बल्कि धार्मिक और नैतिक विमर्श का भी हिस्सा है।

रेशु नाथ की पटकथा (जिग्ना वोरा की किताब ‘बानो: भारत की बेटी’ पर आधारित) 136 मिनट की अवधि में बड़ी कुशलता से जानकारी और भावनाओं के बीच संतुलन साधती है। फिल्म 1970 और 80 के दशक को बिना अति-नॉस्टेल्जिया के पुनः रचती है, और मुस्लिम समाज की ऊपरी व निचली दोनों परतों को ईमानदारी से पेश करती है।

अदालत से समाज तक: ‘हक़’ का संघर्ष

फिल्म का मुख्य मंच अदालत है जहां हर सुनवाई के साथ कथा नई दिशा लेती है। सीआरपीसी की धारा 125, संविधान का अनुच्छेद 44, और कुरान-शरीयत के विभिन्न पहलुओं को फिल्म में बार-बार उद्धृत किया गया है। लेकिन ये कानूनी विवरण बोझ नहीं बनते क्योंकि फिल्म का केंद्र हमेशा शाज़िया रहती है  एक ऐसी औरत जो अपमान और त्याग के बाद भी न्याय की उम्मीद छोड़ती नहीं।

उसकी लड़ाई सिर्फ अब्बास से नहीं, बल्कि उस पूरे मानसिक ढांचे से है जो धर्म और परंपरा की आड़ में स्त्री के हक़ को गौण मानता है। शाज़िया अपने अनुभव और विश्वास के बल पर उस व्यवस्था को चुनौती देती है, जो सदियों से पुरुषों के पक्ष में झुकी हुई है।

प्रेम, पीड़ा और प्रतिरोध की कहानी

यामी गौतम धर ने शाज़िया बानो के रूप में अत्यंत संवेदनशील और प्रखर अभिनय किया है। उनकी आंखों में प्रेम भी है, दर्द भी और विद्रोह भी। यह किरदार आसानी से एक आदर्शवादी नारी प्रतीक बन सकता था, लेकिन यामी इसे जमीन से जोड़कर जीवंत बनाती हैं।

इमरान हाशमी का अब्बास खान  एक ऐसा आदमी है जो अपने अपराधों से वाकिफ होते हुए भी सत्ता और प्रतिष्ठा के नशे में उन्हें सही ठहराता है। शाज़िया और अब्बास के बीच के संवाद ही फिल्म की आत्मा हैं  जहां हर शब्द में प्यार और विरोध, दोनों की प्रतिध्वनि सुनाई देती है।फिल्म में शीबा चड्ढा, डैनिश हुसैन, असीम हट्टंगड़ी और वार्तिका सिंह जैसे कलाकारों ने भी अपने किरदारों को सशक्त ढंग से निभाया है।

अंतिम प्रभाव

‘हक़’ एक ऐसी फिल्म है जो किसी क्रांतिकारी बदलाव का दावा नहीं करती, लेकिन अपने विमर्श से दर्शक को सोचने पर मजबूर जरूर करती है। यह एक ऐसे दौर की कहानी है जब अदालतें न्याय की अंतिम उम्मीद थीं और महिलाएं अपनी आवाज़ खुद खोज रही थीं।

यह फिल्म न तो प्रचार है, न उपदेश बल्कि एक संवेदनशील यात्रा है उस स्त्री की, जिसने अपने हक़ के लिए समाज, धर्म और प्रेम  तीनों से लोहा लिया।‘हक़’ हमें याद दिलाती है कि किसी भी समाज की वास्तविक उन्नति तब होती है जब उसकी औरतें अपने अधिकार और हक़दारी के बीच फर्क समझकर अपने आत्मसम्मान के लिए खड़ी होती हैं। यह फिल्म उसी साहस और विश्वास का सिनेमाई दस्तावेज़ है।

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