सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर केंद्र का कड़ा रुख, राष्ट्रपति और राज्यपालों की स्वीकृति पर तय सीमा विवादित

Centre opposes Supreme Court decision: केंद्र की ओर से दायर हलफनामे में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए संविधान संशोधन का अधिकार खुद को दे लिया है, जो गलत है.;

Update: 2025-08-17 02:44 GMT

Supreme Court के विधानसभा से पास हुए बिलों पर राष्ट्रपति और राज्यपालों द्वारा स्वीकृति देने या अस्वीकार करने की समयसीमा तय करने फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार ने कड़ी आपत्ति जताई है. केंद्र ने इसे संवैधानिक पदाधिकारियों के अधिकार क्षेत्र में गैर-कानूनी हस्तक्षेप कर सत्ता के संतुलन को बिगाड़ने वाला कदम बताया है.

केंद्र ने कहा कि असेंश्न (स्वीकृति) प्रक्रिया की न्यायिक समीक्षा, चाहे वह असेंश्न मिलने के बाद हो या उससे पहले, राज्य के तीन स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संवैधानिक संतुलन को अस्थिर कर सकती है. यह न्यायपालिका को सर्वोच्चता देने जैसा होगा, जो संविधान की मूल संरचना के खिलाफ है और सरकार के किसी भी अंग द्वारा पार नहीं किया जाना चाहिए.

केंद्र की ओर से दायर हलफनामे में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए संविधान संशोधन का अधिकार खुद को दे लिया है, जो गलत है. कोर्ट ने तमिलनाडु के 10 बिलों को “मानी गई स्वीकृति” (deemed assent) दे दी, जो संवैधानिक और विधायी प्रक्रिया को पूरी तरह उलट देता है. केंद्र का कहना है कि अनुच्छेद 142 कोर्ट को ‘मानी गई स्वीकृति’ की कोई अवधारणा बनाने का अधिकार नहीं देता.

केंद्र ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के उस संदर्भ के समर्थन में ये तर्क प्रस्तुत किए हैं, जिसमें 14 सवाल उठाए गए हैं, जो 8 अप्रैल के विवादास्पद फैसले के बाद उत्पन्न हुए. केंद्र ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के निर्णयों पर न्यायिक हस्तक्षेप से न्यायपालिका को संवैधानिक पदों पर हावी होने का अवसर मिलेगा, जो लोकतंत्र के संतुलन के लिए खतरनाक है.

केंद्र ने यह भी कहा कि असेंश्न की प्रक्रिया की न्यायिक समीक्षा संभव नहीं है क्योंकि असेंश्न देने या न देने के दौरान जो राजनीतिक-वैधानिक परिस्थितियां होती हैं, उनका कोई कानूनी या संवैधानिक समतुल्य नहीं है। इसलिए इस प्रक्रिया को विशेष न्यायिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। तीनों शासन अंगों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—को संविधान से समान शक्ति प्राप्त है, और न्यायपालिका को राज्यपाल के पद को नीचा दिखाने का कोई अधिकार नहीं है. राज्यपाल और राष्ट्रपति के बिलों से जुड़े फैसले राजनीतिक स्वभाव के होते हैं, जिन्हें न्यायपालिका के बजाय राजनीतिक मंच पर हल किया जाना चाहिए.

केंद्र ने कहा कि संवैधानिक शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. हालांकि, वर्षों में कुछ हिस्सों में अधिकारों का ओवरलैप हुआ है, परन्तु संवैधानिक तौर पर Legislature, Executive और Judiciary के अलग-अलग क्षेत्र निर्धारित हैं और कोई भी अंग दूसरे के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं दे सकता. तमिलनाडु राज्यपाल के साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तरीके की आलोचना करते हुए केंद्र ने कहा कि राज्यपाल केवल केंद्र के प्रतिनिधि नहीं बल्कि राज्य में राष्ट्रीय हित और लोकतांत्रिक इच्छाशक्ति के प्रतिनिधि हैं।

केंद्र ने यह भी स्पष्ट किया कि संविधान जब किसी निर्णय के लिए समयसीमा निर्धारित करना चाहता है तो वह इसे स्पष्ट रूप से लिखता है और जब इसे लचीला रखना चाहता है तो कोई समयसीमा नहीं देता. अनुच्छेद 200 या 201 के तहत कोई निश्चित समयसीमा नहीं है, इसलिए कोई न्यायिक समीक्षा या व्याख्या समयसीमा थोप नहीं सकती.

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