मतदाता पहचान पत्र को आधार से जोड़ने पर होगी बैठक, डुप्लिकेट ईपीआईसी विवाद पर उठाया कदम

विपक्षी दलों की तरफ से उठाये गए सवालों के बाद चुनाव आयोग ये बैठक करने जा रहा है, जिसमें केन्द्रीय गृह सचिव, विधायी सचिव व यूआईडीएआई के CEO शामिल रहेंगे.;

Update: 2025-03-15 11:30 GMT

EPIC Controversy : मतदाता सूची में गड़बड़ियों और डुप्लिकेट वोटर आईडी की शिकायतों के बीच चुनाव आयोग ने मतदाता पहचान पत्र (ईपीआईसी) को आधार से जोड़ने की प्रक्रिया तेज कर दी है। इस मुद्दे पर मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार केंद्रीय गृह सचिव, विधायी सचिव और यूआईडीएआई के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के साथ मंगलवार को चर्चा करेंगे।


डुप्लिकेट ईपीआईसी विवाद और चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया

हाल ही में संसद में डुप्लिकेट मतदाता पहचान पत्र के मामले को लेकर विवाद गहराया। विपक्षी दलों ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाए, और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी यह मुद्दा उठाया। इस विवाद के बीच चुनाव आयोग ने घोषणा की है कि वह दशकों पुरानी इस समस्या का समाधान अगले तीन महीनों में करेगा।


आधार-मतदाता पहचान पत्र लिंकिंग की कानूनी स्थिति

चुनाव कानून (संशोधन) अधिनियम, 2021 के तहत निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी स्वैच्छिक आधार पर मतदाताओं से उनकी पहचान सत्यापित करने के लिए आधार नंबर मांग सकते हैं। यह अधिनियम मतदाता सूची को आधार डेटाबेस से जोड़ने की अनुमति देता है, लेकिन सरकार का कहना है कि यह पूरी तरह स्वैच्छिक होगा और आधार से मतदाता सूची न जोड़ने पर किसी का नाम सूची से नहीं हटाया जाएगा।


राजनीतिक दलों की आपत्ति और टीएमसी की शिकायत

तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने कई राज्यों में समान ईपीआईसी नंबर के मामलों को उजागर किया और चुनाव आयोग पर तथ्यों को छुपाने का आरोप लगाया। टीएमसी के एक प्रतिनिधिमंडल ने कोलकाता में चुनाव आयोग के अधिकारियों से मुलाकात कर भौतिक सत्यापन की मांग की, ताकि प्रत्येक मतदाता को एक विशिष्ट पहचान संख्या सुनिश्चित की जा सके।


प्रभाव और संभावित चुनौतियां

पारदर्शिता और निष्पक्षता: आधार लिंकिंग से फर्जी और डुप्लिकेट वोटरों की पहचान संभव हो सकती है।

डेटा सुरक्षा और गोपनीयता: मतदाताओं की निजी जानकारी के दुरुपयोग की आशंका बनी हुई है।

राजनीतिक विवाद: कुछ दलों को संदेह है कि यह प्रक्रिया किसी खास पक्ष को लाभ पहुंचाने के लिए की जा सकती है।

स्वैच्छिकता बनाम अनिवार्यता: सरकार इसे स्वैच्छिक बता रही है, लेकिन भविष्य में इसे अनिवार्य बनाए जाने को लेकर आशंकाएं हैं।

इस प्रक्रिया के चुनावी प्रणाली पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकते हैं। क्या यह कदम भारतीय चुनाव प्रणाली को अधिक पारदर्शी बनाएगा, या नई चुनौतियों को जन्म देगा?


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