राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से कब राय लेंगे, यह अदालत नहीं तय कर सकती: केंद्र
केंद्र सरकार ने साफ कहा है कि राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने के लिए बाध्य नहीं हैं. राष्ट्रपति और राज्यपाल पर कोई समयसीमा थोपना संविधान के खिलाफ है. अदालत को राजनीतिक और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. अब इस विवाद पर अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ लेगी.;
Supreme Court vs Presidential Powers: केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में साफ कहा है कि अदालत यह तय नहीं कर सकती कि राष्ट्रपति किसी विधेयक पर कब और कैसे सुप्रीम कोर्ट से राय लें. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के एक पुराने फैसले पर आपत्ति जताई, जिसमें कहा गया था कि अगर कोई राज्यपाल किसी बिल को राष्ट्रपति के पास इसलिए भेजता है क्योंकि वो असंवैधानिक लगता है तो राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से राय लेनी चाहिए.
राष्ट्रपति की अपनी स्वतंत्रता
सरकार ने कहा कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने के लिए बाध्य नहीं हैं. ये उनके विवेक पर निर्भर करता है कि वो किस मुद्दे पर कोर्ट से राय लेना चाहते हैं. सरकार का कहना है कि "सलाह लेना" और "सलाह मानना" दोनों में फर्क है. राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.
समय सीमा थोपना असंवैधानिक
सरकार ने यह भी कहा कि अगर राज्य विधानसभा द्वारा पास किए गए विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए राज्यपाल या राष्ट्रपति पर कोई समयसीमा तय की जाती है तो यह संविधान के खिलाफ होगा. सरकार ने अपनी लिखित दलीलों में कहा कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि राष्ट्रपति को किसी तय समय में फैसला लेना ही होगा. अगर अदालत इस तरह की समय-सीमा तय करती है तो यह संवैधानिक संतुलन को बिगाड़ देगा.
अनुच्छेद 143 के तहत सलाह
8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच (जस्टिस जे बी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन) ने कहा था कि अगर कोई बिल साफ तौर पर असंवैधानिक लगता है तो राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय लेनी चाहिए. इस पर केंद्र ने आपत्ति जताई है और कहा है कि यह राष्ट्रपति की स्वतंत्र शक्तियों में हस्तक्षेप है.
पांच जजों की बेंच करेगी सुनवाई
अब इस पूरे मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता में पांच जजों की संविधान पीठ करेगी. सुनवाई से पहले केंद्र सरकार ने अदालत में अपना पक्ष लिखित रूप में दर्ज किया है.
समय-सीमा तय नहीं
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201, जो राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका से जुड़े हैं, में जानबूझकर कोई समय-सीमा नहीं रखी गई है. जब संविधान समय तय करना चाहता है तो वह साफ-साफ उसका उल्लेख करता है. लेकिन जहां लचीलापन जरूरी होता है, वहां समय-सीमा नहीं दी जाती. अगर कोर्ट अपनी तरफ से समय तय करता है तो यह संविधान में बदलाव जैसा होगा.
राजनीतिक पदों पर न्यायिक दखल गलत
सरकार ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे पद लोकतंत्र के बड़े राजनीतिक प्रतीक हैं. अगर उनमें कोई चूक होती है तो उसका समाधान राजनीतिक और लोकतांत्रिक तरीकों से होना चाहिए, न कि अदालत के निर्देशों से. सरकार के अनुसार, कोर्ट को संविधान के अन्य स्तंभों के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.