SC में गवर्नर-राष्ट्रपति की संवैधानिक सीमाओं पर मंथन, समयसीमा पर सवाल

सुप्रीम कोर्ट में गवर्नर और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर सहमति देने की समयसीमा पर तीखी बहस छिड़ी। न्यायाधीशों ने संविधान संशोधन की जरूरत पर सवाल उठाए।;

Update: 2025-09-03 05:20 GMT
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यह केवल सुप्रीम कोर्ट की एक मौखिक टिप्पणी थी, लेकिन इतनी तीखी कि विपक्ष-शासित राज्यों की धड़कनें तेज़ हो गईं। मामला था—गवर्नर और राष्ट्रपति द्वारा विधानसभा या संसद से भेजे गए विधेयकों पर सहमति (Assent) देने के लिए समयसीमा तय करने का।

बहस की पृष्ठभूमि

राष्ट्रपति संदर्भ (Presidential Reference) पर छठी सुनवाई के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी (तमिलनाडु की ओर से) और कपिल सिब्बल (पश्चिम बंगाल की ओर से) ने जोरदार दलीलें पेश कीं। उनका कहना था कि गवर्नर और राष्ट्रपति को विधायिका से भेजे गए विधेयकों पर “तुरंत कार्रवाई” करनी चाहिए। वे “सर्वशक्तिमान संवैधानिक प्राधिकरण” नहीं बन सकते और न ही “गणतंत्र में राजा” की तरह अनिश्चित काल तक विधेयक रोके रख सकते हैं।

न्यायाधीशों की शंकाएँ

पांच जजों की संविधान पीठ में से दो—मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के उत्तराधिकारी सीजेआई बी.आर. गवई और जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा—ने कहा कि गवर्नर और राष्ट्रपति पर समयसीमा तय करना “कठिन प्रस्ताव” है। उनका सवाल था कि क्या इसके लिए संविधान संशोधन जरूरी होगा?

जस्टिस विक्रम नाथ ने भी इसी आशंका को दोहराते हुए कहा—

“अगर हम समयसीमा तय कर दें और उसका पालन न हो तो क्या होगा? क्या विधेयक अपने आप रद्द हो जाएगा? संविधान में ‘जितनी जल्दी संभव हो’ का प्रावधान है, लेकिन इसे लागू करवाना अदालत के विवेक पर निर्भर करता है, न कि किसी सार्वभौमिक समयसीमा पर।”

सिंघवी और सिब्बल की दलीलें

सिब्बल का तर्क: संविधान का काम सहयोगात्मक (collaborative) होना चाहिए, टकरावपूर्ण (combative) नहीं। अनुच्छेद 200 के तहत गवर्नर को दी गई विवेकाधिकार शक्तियों का इस्तेमाल संविधान की सीमाओं में होना चाहिए।

सिंघवी का तर्क: गवर्नर और राष्ट्रपति की शक्तियाँ अनुच्छेद 200 और 201 से सीमित हैं। वे “न्यायिक समीक्षा से बाहर” कोई पूर्णाधिकार नहीं रखते।

दोनों ने कहा कि गवर्नर और राष्ट्रपति केवल विकल्पों और प्रक्रियाओं तक सीमित हैं, और विधेयक को मारने (kill a Bill) की शक्ति केवल विधायिका के पास है।

समयसीमा का असली सवाल

सीजेआई गवई ने पूछा—“क्या हम अनुच्छेद 142 के तहत राष्ट्रपति और गवर्नर की शक्तियों पर सीधी समयसीमा थोप सकते हैं?”

जस्टिस नाथ ने भी पूछा—“क्या अनुच्छेद 200 में लिखा ‘जितनी जल्दी संभव हो’ पर्याप्त नहीं है?” जिस पर सिंघवी ने तुरंत कहा—“यह साबित हो चुका है कि यह पर्याप्त नहीं है।”

न्यायाधीशों ने यह भी संकेत दिया कि समयसीमा हर मामले की परिस्थितियों के आधार पर तय होनी चाहिए, न कि सभी विधेयकों के लिए एक सार्वभौमिक नियम बना दिया जाए।

आगे क्या?

सुनवाई का अंत मुख्य न्यायाधीश के इस सवाल से हुआ कि क्या अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को ऐसी सामान्य समयसीमा तय करने का अधिकार देता है। विपक्ष-शासित राज्यों की ओर से समयसीमा के पक्ष में दलीलें अब 3 सितंबर को भी जारी रहेंगी।यह बहस केवल एक तकनीकी प्रश्न नहीं है, बल्कि संविधान की व्याख्या, संघीय ढांचे की मजबूती और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की गति से जुड़ा बड़ा मुद्दा है।

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