टालने और अनदेखा करने की ना करें भूल, भारी पड़ती हैं ये मानसिक समस्याएं
यह मानना आसान है कि याददाश्त से जुड़ी दिक्कतें उम्र के साथ सामान्य हैं, मगर सच्चाई कहीं ज्यादा कठोर है। अल्ज़ाइमर और डिमेंशिया जटिल न्यूरोलॉजिकल विकार हैं।
अल्ज़ाइमर को लेकर आज भी लोग कई प्रकार के भ्रम में जी रहे हैं। इन मिथकों की वजह से सही निदान और देखभाल सालों तक टल जाते हैं। हो सकता है आपकी दादी की भूलने की आदत को सिर्फ "बुढ़ापा" कहकर टाल दिया गया हो। या फिर 50 की उम्र में किसी का कन्फ्यूजन अल्ज़ाइमर माना ही न गया क्योंकि यह तो "सिर्फ बूढ़ों की बीमारी" है।
यह मानना आसान है कि याददाश्त से जुड़ी दिक्कतें उम्र के साथ सामान्य हैं, मगर सच्चाई कहीं ज्यादा कठोर है। अल्ज़ाइमर और अन्य प्रकार के डिमेंशिया वास्तविक और जटिल न्यूरोलॉजिकल विकार हैं। पूरी तरह इलाज अभी उपलब्ध नहीं है, लेकिन शुरुआती पहचान से जीवन की गुणवत्ता और देखभाल दोनों को बेहतर किया जा सकता है।
भारत तेजी से वृद्ध हो रहा है। यूएन पॉपुलेशन डेटा (2023) के अनुसार, भारत में 60 वर्ष से ऊपर की जनसंख्या 14% तक पहुँच चुकी है और 2050 तक यह दोगुनी हो सकती है। ऐसे में अल्ज़ाइमर जैसी बीमारियों की समय रहते पहचान बेहद अहम है।
मिथक 1: भूलने की आदत तो बढ़ती उम्र का हिस्सा है
सामान्य भूलना किसी भी उम्र में हो सकता है, लेकिन जब यह रोज़मर्रा की जिंदगी को प्रभावित करने लगे। जैसे, खाना पकाना भूल जाना, घर का रास्ता खो देना, समय-स्थान की गड़बड़ी होना या व्यवहार में अचानक बदलाव आना तो यह सिर्फ "बुढ़ापा" नहीं है।
इंडिया लॉन्गिट्यूडिनल एजिंग स्टडी (LASI-DAD, 2020) के अनुसार, 60 वर्ष से ऊपर के लगभग 7.4% भारतीय यानी करीब 88 लाख लोग डिमेंशिया से प्रभावित हैं। कई परिवार इन शुरुआती संकेतों को उम्र का असर समझकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं, जिससे सही इलाज में सालों की देरी हो जाती है।
मिथक 2: अल्ज़ाइमर सिर्फ बहुत बूढ़ों को होता है
बहुत से लोग मानते हैं कि अल्ज़ाइमर 70–80 साल की उम्र में ही होता है। जबकि सच्चाई यह है कि 40 और 50 की उम्र में भी Early-onset Alzheimer's के मामले सामने आते हैं।
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (WHO, 2022) के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 5–6% मामले ऐसे हैं जिनमें बीमारी की शुरुआत 65 वर्ष से पहले होती है। यह भले दुर्लभ हो, लेकिन इसे पहचानना जरूरी है क्योंकि इसका असर पूरे परिवार की योजना, आर्थिक फैसलों और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है।
मिथक 3: "जब इलाज नहीं है तो जल्दी पता करने का क्या फायदा?"
यह सोच सबसे खतरनाक है। भले ही आज अल्ज़ाइमर का पूर्ण इलाज मौजूद नहीं है, लेकिन शुरुआती निदान और हस्तक्षेप बीमारी की प्रगति को धीमा कर सकते हैं।
जर्नल ऑफ अल्ज़ाइमर डिज़ीज़ (2019) में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि शुरुआती पहचान और उपचार से मरीजों के गंभीर संज्ञानात्मक हानि में जाने का समय कई महीनों तक टल सकता है। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की 2021 की रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि शुरुआती निदान लंबी अवधि में स्वास्थ्य खर्च को कम करता है क्योंकि मरीज को संस्थागत देखभाल देर से लगती है।
मिथक 4: डिमेंशिया और अल्ज़ाइमर एक ही हैं
डिमेंशिया एक व्यापक शब्द है जिसका अर्थ है संज्ञानात्मक क्षमताओं का ह्रास। अल्ज़ाइमर इसका सबसे आम कारण है, लेकिन अकेला नहीं।
अन्य प्रकार
वास्कुलर डिमेंशिया – मस्तिष्क की रक्त नलियों को नुकसान से जुड़ा और ब्लड प्रेशर या डायबिटीज़ नियंत्रण से धीमा हो सकता है।
लेवी बॉडी डिमेंशिया – जिसमें भ्रम और विजुअल हैल्यूसिनेशन ज्यादा होते हैं।
फ्रंटोटेम्पोरल डिमेंशिया – अपेक्षाकृत कम उम्र में होता है और व्यक्तित्व व व्यवहार पर असर डालता है।
लैंसेट कमीशन (2020) के अनुसार, लगभग 30–35% मामलों में जीवनशैली कारकों को नियंत्रित कर डिमेंशिया के खतरे को कम किया जा सकता है। इसका मतलब है कि सही निदान और सही जीवनशैली दोनों बेहद महत्वपूर्ण हैं।
मिथक 5: निदान के बाद कुछ नहीं किया जा सकता
निदान का मतलब "अंत" नहीं है। शोध लगातार आगे बढ़ रहा है। दवाइयों, कॉग्निटिव थेरेपी, संतुलित आहार, व्यायाम, सामाजिक जुड़ाव और मानसिक सक्रियता से मरीज लंबे समय तक स्वतंत्र और कार्यशील रह सकते हैं।
नेचर रिव्यूज़ न्यूरोलॉजी (2021) के अनुसार, शुरुआती हस्तक्षेप से जीवन की गुणवत्ता बेहतर होती है, गिरावट धीमी होती है और मरीज व उनके परिवार कानूनी व आर्थिक फैसले समय रहते ले सकते हैं।
क्यों जरूरी है शुरुआती पहचान?
बेहतर जीवन गुणवत्ता: शुरुआती उपचार गिरावट को धीमा करता है और मरीज अधिक समय तक स्वतंत्र रहते हैं।
योजना का अवसर: कानूनी, आर्थिक और देखभाल से जुड़े निर्णय समय रहते लिए जा सकते हैं।
थेरेपी और ट्रायल तक पहुंच: कई नई दवाइयाँ और कॉग्निटिव ट्रेनिंग शुरुआती चरण में ही प्रभावी होती हैं।
खर्च में कमी: शुरुआती हस्तक्षेप लंबी अवधि में संस्थागत देखभाल की ज़रूरत घटाता है।
मिथक निर्दोष नहीं हैं। ये समय, सम्मान और मानसिक शांति छीन लेते हैं। अगर आपके किसी प्रियजन में भूलने की आदत, शब्दों का बार-बार खोना, समय-स्थान की गड़बड़ी या व्यक्तित्व में बदलाव दिखे तो इसे "सिर्फ बुढ़ापा" कहकर न टालें।
भले ही अल्ज़ाइमर का अभी पूरा इलाज न हो, लेकिन शुरुआती पहचान मरीज और परिवार दोनों को सबसे बड़ी चीज़ देती है—चॉइस। देखभाल का चुनाव, जीवन का चुनाव और सबसे बढ़कर समय का चुनाव। यही फर्क लाता है।
डिसक्लेमर- यह आर्टिकल जागरूकता के उद्देश्य से लिखा गया है। किसी भी सलाह को अपनाने से पहले डॉक्टर से परामर्श करें।