बकरीद: केवल पशुबलि नहीं, बल्कि समर्पण, करुणा और सामाजिक न्याय का पर्व
7 जून को मनाया जाने वाला ईद-उल-अजहा त्यौहार, जिसे अक्सर पशु वध तक सीमित कर दिया जाता है, उपहार-रहित दान, पशुओं के प्रति सम्मान और धन के पुनर्वितरण के इस्लामी आदर्शों से ओत-प्रोत है।;
ईद-उल-अज़हा, जिसे बकरीद भी कहा जाता है, को सार्वजनिक विमर्श में अक्सर पशुओं की बलि, शहरी अव्यवस्था और संभावित कानून-व्यवस्था संबंधी समस्याओं से जोड़ा जाता है। आलोचकों का कहना है कि यह त्योहार पशुओं के प्रति क्रूरता का प्रतीक है और इस कारण हिंदू या शाकाहारी संवेदनाओं को आहत करता है।
उदाहरण के लिए, बागेश्वर धाम के पुजारी धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री ने हाल ही में कहा:
“जीवों पर हिंसा किसी भी समुदाय, संस्कृति या धर्म में स्वीकार्य नहीं है। हम पशुबलि या बकरीद जैसे अनुष्ठानों का समर्थन नहीं करते।”
ऐसे वक्तव्यों से यह धारणा बनती है कि कुर्बानी — यानी पशुबलि — स्वभावतः गलत या निंदनीय है।
हालांकि, इस्लाम में कुर्बानी की भावना को इसके संपूर्ण धार्मिक और सामाजिक संदर्भ में समझाने की आवश्यकता है, विशेषकर तब जब ‘ग्रीन बकरीद’ जैसे अभियान तेजी से चर्चा में आ रहे हैं। यहां तीन अहम पहलुओं पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है:
बिना प्रतिदान के दान (gift-less giving)
इस्लामी शिक्षाओं में पशुओं का सम्मानपूर्ण स्थान
पवित्रता और परोपकार के रूप में मांस वितरण
त्याग और आस्था का प्रतीक
बकरीद पैगंबर हज़रत इब्राहीम (अलैहि सलाम) द्वारा अल्लाह के आदेश पर अपने पुत्र इस्माइल (अलैहि सलाम) को बलिदान करने की तत्परता की याद में मनाई जाती है। हज़रत इब्राहीम की भक्ति को देखकर, अल्लाह ने उनके बेटे के स्थान पर एक मेमना (भेड़) भेजा। इस त्याग और समर्पण की याद में बकरीद मनाई जाती है।
इसीलिए इसे त्याग का त्योहार (Festival of Sacrifice) भी कहा जाता है, जहां इंसान अपने नफ़्स (अहंकार) को दबाकर खुद को अल्लाह के प्रति समर्पित करता है।
‘कुर्बानी’ का अर्थ और उसका मर्म
‘कुर्बानी’ का शाब्दिक अर्थ है बलिदान या अर्पण। लेकिन इस्लाम में बलिदान की अवधारणा अद्वितीय है — क्योंकि अल्लाह को कुछ देना संभव नहीं है। इस्लामी दृष्टिकोण में कुर्बानी एकपक्षीय (unilateral) होती है — एक ऐसा दान जिसमें किसी प्रकार के प्रतिफल की अपेक्षा नहीं की जाती। यह ‘बिना उपहार के दान’ की भावना है।
इसका अर्थ यह भी है कि इंसान जो कुछ भी कुर्बानी करता है, वह पहले से ही अल्लाह की दी हुई चीज़ है — जानवर, धन, और यहां तक कि दान पाने वाले लोग भी। कुरआन में कहा गया है:
“न तो उनका मांस और न ही उनका खून अल्लाह तक पहुंचता है, बल्कि तुम्हारी भक्ति पहुंचती है।”
(कुरआन 22:37)
इसमें इंसान का विनम्रता, आत्म-त्याग और परमार्थ की भावना से कुर्बानी करना ज़रूरी है। जब मांस ज़रूरतमंदों तक पहुंचता है, तब ही वह कुर्बानी ‘कबूल’ होती है।
इस्लाम में पशुओं की गरिमा और उनके प्रति संवेदनशीलता
इस्लाम में पशुओं के साथ दया और सहानुभूति बरतने के विशेष निर्देश हैं। कुर्बानी के लिए चुने गए जानवर:
बीमार, घायल या गर्भवती नहीं होने चाहिए
उन्हें कुर्बानी से पहले अच्छी तरह खिलाया-पिलाया जाना चाहिए
बलिदान भोर (सुबह) में किया जाना चाहिए, जब जानवरों के लिए विश्राम का समय होता है
जानवरों को तड़प से बचाने के लिए तेज़ और धारदार चाकू से एक हलाल किया जाना चाहिए
चाकू को जानवर की नजर से दूर तेज किया जाना चाहिए
अल्लाह का नाम लेकर कुर्बानी दी जाती है: “बिस्मिल्लाहि अल्लाहु अकबर”
ज़बह के बाद खाल उतारने (skinning) की प्रक्रिया तभी शुरू की जाए जब जानवर की जान पूरी तरह जा चुकी हो
बलिदान की प्रक्रिया अन्य जानवरों की नज़रों से दूर की जानी चाहिए ताकि वे भयभीत न हों
मांस वितरण का नियम और उद्देश्य
इस्लाम में कुर्बानी का मांस तीन बराबर हिस्सों में बांटना अनिवार्य है:
एक-तिहाई हिस्सा गरीबों और ज़रूरतमंदों को दिया जाता है
एक-तिहाई हिस्सा रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों को
एक-तिहाई हिस्सा स्वयं या अपने परिवार के लिए रखा जाता है
कुर्बानी के जानवर के किसी भी हिस्से — मांस, खाल, खून, अंग आदि — को बेचना या किसी सेवा के बदले देना निषिद्ध है।
हर चीज़ बिना किसी लाभ के केवल भक्ति और सेवा की भावना से दी जाती है।
धनी व्यक्तियों के लिए यह ज़रूरी है कि वे गरीबों को मांस दें और अपने लिए उसे न रखें। गरीबों को यह मांस दान नहीं, बल्कि अल्लाह का हक़ मानकर आत्मसम्मान के साथ स्वीकार करना चाहिए।
इस पूरे कृत्य को इबादत (पूजा) माना जाता है — न केवल देने वाले के लिए, बल्कि लेने वाले के लिए भी। देने में नम्रता और गुप्तता आवश्यक है — ताकि प्राप्तकर्ता की गरिमा बनी रहे।
सामाजिक पुनर्वितरण और परमार्थ का माध्यम
कुर्बानी का मांस केवल घर, पड़ोस या सहायकों तक सीमित नहीं होता। कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिलांथ्रॉपिक संस्थाएं इस मांस को:
शहरी स्लम्स में
प्राकृतिक आपदा या संघर्षग्रस्त क्षेत्रों में
अत्यधिक गरीब और वंचित समुदायों तक पहुंचाती हैं
दक्षिण एशिया में कई संस्थाएं कुर्बानी की खाल को बेचकर शिक्षा, स्वास्थ्य और जनकल्याण की योजनाएं भी चलाती हैं।
गलतफहमियों और प्रचार के बीच सही समझ
दुर्भाग्यवश, कुर्बानी की नैतिकता, उदारता, समर्पण और पशु-करुणा जैसे तत्व आम जन विमर्श से गायब हो चुके हैं। इसके बजाय मुस्लिमों और इस्लामी परंपराओं को लेकर गलतफहमियां फैलाई जा रही हैं।
नफ़रत फैलाने वाले प्रोपेगैंडा ने वास्तविक शहरी प्रशासनिक विफलताओं को मुस्लिम धार्मिक प्रथाओं से जोड़ दिया है, जिससे बकरीद को लेकर वास्तविक चुनौतियां — जैसे साफ-सफाई, नियमन या लॉ एंड ऑर्डर — धार्मिक टकराव का मुद्दा बना दी जाती हैं।
जबकि हक़ीक़त यह है कि बकरीद:
सामाजिक न्याय
संपत्ति और संसाधनों के पुनर्वितरण
और सामूहिक समानता और करुणा के सिद्धांतों पर आधारित है।