कांग्रेस को आगे बढ़ना है तो बदलाव जरूरी, पार्टी को वापस पाना होगा अपना जोश
हाल ही में हुए चुनावों में मिली हार के लिए कांग्रेस ने ईवीएम को दोषी ठहराया है और अपने संगठन की स्थिति के बारे में कोई गंभीर आत्मनिरीक्षण नहीं किया है.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता राहुल गांधी एक समस्या से ग्रस्त हैं. पदयात्राओं के बाद राष्ट्रीय स्तर के नेता के रूप में राहुल के पुनरुत्थान के बाद से पार्टी ने अपने खुद के स्वार्थ के खिलाफ काम किया है. हाल ही में हुए चुनावों में मिली हार के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को दोषी ठहराया है और अपने संगठन की स्थिति के बारे में कोई गंभीर आत्मनिरीक्षण नहीं किया है. इसे ठीक करने के लिए कुछ अलग हटकर सोचने की ज़रूरत हो सकती है. समय की कमी के कारण कभी-कभी तुरंत समाधान की ज़रूरत होती है. लेकिन कांग्रेस में लंबे समय से यह बेहद ज़रूरी बदलाव का विकल्प बन गया है.
हरियाणा में चुनावी खेल
हाल ही में हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में वर्तमान चुनाव आयोग द्वारा संचालित ईवीएम प्रणाली वास्तव में मनोनीत है. क्योंकि चयन पैनल पर सरकार का प्रभुत्व है और पिछले दिसंबर में नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा इस संबंध में कानून में संशोधन किए जाने के बाद से कोई स्वतंत्र आवाज नहीं है. इसको कांग्रेस की हार के लिए काफी हद तक दोषी ठहराया जा सकता है. विश्वसनीय व्यक्तियों वाले नागरिक समाज संगठन वोट फॉर डेमोक्रेसी ने दावा किया कि चुनाव आयोग ने डाले गए मतों से अधिक मतों की गणना की है, जिससे मतपत्र में गड़बड़ी का संदेह पैदा हो गया है. लेकिन मोदी राज में चुनाव आयोग जनता की किसी भी शंका का समाधान नहीं करता, विपक्षी दलों की भी नहीं. यह निरंकुश तरीके से काम करता है. कार्यपालिका के आगे झुकना ही इसका मुख्य काम लगता है.
हरियाणा मामले में भी चुनाव आयोग ने कांग्रेस को राजनीतिक दलों की भाषा का इस्तेमाल करते हुए, न कि किसी तटस्थ चुनाव निकाय की भाषा का इस्तेमाल करते हुए, सख्त लहजे में कहा था कि वह 'अनावश्यक डर' न फैलाए. दरअसल, चुनाव आयोग का दुरुपयोग मोदी सरकार के चुनाव के समय इस्तेमाल किए जाने वाले टूलकिट का हिस्सा बन गया है.
हरियाणा जैसा माहौल
मई में हुए लोकसभा चुनाव में यह चाल लगभग काम कर गई थी. लेकिन उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने खेल को उलट दिया. इसमें कुछ हद तक आरएसएस की भी मदद मिली, जिसने उम्मीद के मुताबिक मोदी और भाजपा के लिए प्रचार नहीं किया. हालांकि, हिंदुत्व की मातृ संस्था का भगवा पार्टी के साथ एक भ्रूण संबंध है. आरएसएस प्रमुख और प्रधानमंत्री के बीच तनाव स्पष्ट था. इस बात की पूरी संभावना है कि अगले महीने महाराष्ट्र और झारखंड में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए भी चुनाव आयोग की सेवाएं ली जाएंगी.
संवाद की आवश्यकता
इसलिए कांग्रेस को शेष बचे कम समय में वह सब करना चाहिए, जिससे वह सामरिक गलतियों से बच सके और वह प्रक्रिया शुरू कर सके जिससे लोगों को यह भरोसा मिल सके कि वह स्वास्थ्य क्लिनिक जाने के खिलाफ नहीं है. संक्षेप में कहें तो पार्टी को खड़ा होना होगा और किसी भी तरह की कोताही नहीं बरतनी होगी. जैसे ही आगामी राज्य चुनाव संपन्न हो जाएं, कांग्रेस अपने लिए एक अच्छा काम कर सकती है, यदि वह वरिष्ठ नेताओं और मई से अब तक सभी राज्य चुनावों में सक्रिय भागीदार रहे लोगों के साथ एक व्यापक आंतरिक परामर्श मंच पर अपने आप से कुछ स्पष्ट बातें कहे, तथा मीडिया में अपनी बात का सार प्रस्तुत करके जनता को आश्वस्त करे कि यह एक स्पष्ट नेतृत्व वाला संगठन है.
राजवंशीय उत्तराधिकार
दुर्भाग्यवश, पार्टी आज भी उसी तरह अपना काम कर रही है, जैसे पहले करती थी. जब वंशवाद ही खेल का नाम था और बोला गया हर शब्द झूठ होता था. क्योंकि यह सब न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि राज्य स्तर पर भी नेता या नेता के परिवार को खुश करने के लिए किया जाता था. 'हाईकमान' द्वारा अभिषिक्त क्षत्रपों ने घमंड से काम लिया और नेतृत्व को अपनी दूषित सिफारिशें दीं. ऐसे माहौल में ऐसे नेता कम ही थे, जिनका जनसम्पर्क और वास्तविक लोकप्रियता थी. अन्य पार्टियों की तुलना में कांग्रेस ने राजनीतिक नौकरशाहों की भूमिका को अधिक मूर्त रूप दिया, जिनका काम केवल अपने मालिक को प्रसन्न करना था. क्योंकि मालिक ने उन्हें अधिकार वाले पदों पर बिठाया था, जो दृश्य और अदृश्य तरीकों से लाभ का स्रोत बन गया.
समय बदला
अगर कांग्रेस को आगे बढ़ना है तो इसमें बदलाव लाना होगा. समय वाकई बदल गया है. यदि पार्टी प्रतिस्पर्धी नहीं है तो वह बुरी तरह डूब सकती है. जैसा कि पिछले कुछ वर्षों से हो रहा है. बहुत सारी क्षेत्रीय पार्टियां हैं, जो एक-दूसरे के मित्र या शत्रु हो सकती हैं और यदि कांग्रेस संगठन को उस बाजार में टिके रहना है तो उसे तत्काल अपने आपको मजबूत करने की आवश्यकता है. विशेषकर इसलिए क्योंकि यह किसी विशेष जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र की पार्टी नहीं है. इसका मूलमंत्र संकीर्ण स्वार्थों और वर्गीय हितों से ऊपर उठकर गरीबों के हितों की रक्षा करना और साथ ही आर्थिक वृद्धि तथा विकास को आगे बढ़ाना है.
राहुल गांधी दृढ़ निश्चयी
राहुल ने साहस का परिचय देते हुए 2019 में अपने नेतृत्व में पार्टी की हार के बाद सार्वजनिक रूप से कहा कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य - मतलब उनकी मां या बहन - पार्टी अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार नहीं होंगे. इससे पार्टी में हड़कंप मच गया. पार्टी के समर्थक इस डर से कि उनका समय खत्म हो गया है. लगातार यह दलील देते रहे कि 'परिवार' का कोई प्रमुख सदस्य ही शीर्ष पर बना रहना चाहिए. लेकिन पार्टी अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी ने अपनी बात नहीं मानी. अब समय आ गया है कि हम भी इसी तरह का संकल्प दिखाएं. एक स्वागत योग्य बदलाव के तहत अल्प सूचना पर कांग्रेस ने परिस्थितियों के अनुरूप उचित चुनाव कराए और मल्लिकार्जुन खड़गे को विधिवत अध्यक्ष चुना. पुनर्गठन का शेष कार्य पूरा होने की मांग कर रहा है.
एक अलग पार्टी
जी-23 का दबाव एक ऐसे नए पार्टी प्रमुख के चुनाव में एक प्रेरक कारक रहा, जो न तो परिवार से था और न ही वास्तव में, अनुयायियों में से था. निश्चित रूप से यह संगठनात्मक और वैचारिक रूप से एक ऐसी पार्टी की चुनौती का सामना करने के लिए तैयार होने की आवश्यकता है, जो मूल रूप से बहुसंख्यक धर्म के लोगों की ओर से बोलने के मंच पर अपना मामला रखती है - चाहे मोदी हो या न हो. यह कोई छोटा काम नहीं है. कांग्रेस का चरित्र भी आज इंदिरा गांधी के बाद के दौर से काफी अलग है. इसके अध्यक्ष के रूप में एक बहुत अनुभवी नेता है. साथ ही, इसके पास एक जन नेता भी है, जिसने पार्टी और देश में माहौल बदल दिया है. दोनों वास्तव में मिलकर काम कर रहे हैं और अभी तक उद्देश्यों या महत्वाकांक्षाओं के टकराव का कोई सबूत नहीं मिला है. यह एक अच्छा संकेत है. यदि संगठनात्मक रूप से कमजोरियां दूर कर दी जाएं तो स्थिति और बेहतर हो सकती है.
कांग्रेस को निर्दयी होना होगा
शुरुआत के लिए झाड़ू को दोनों शीर्ष नेताओं के निजी कार्यालयों से शुरू किया जाना चाहिए. इससे एक संकेत जाएगा. दोनों विभिन्न राज्यों में जाल फैला सकते हैं और शीर्ष स्तर पर सहयोगी के रूप में अनुभव और पहल करने वाले युवा राजनेताओं को चुन सकते हैं. रातों-रात अहमद पटेल या आरके धवन का विकल्प ढूंढना मुश्किल है. इन लोगों को परिपक्व होने में भी समय लगा. अब जबकि कांग्रेस काफी समय से विपक्ष में है. उम्मीद है कि उसके आसपास परखे हुए लोग होंगे, सिवाय इसके कि किसी ने उन्हें मौका नहीं दिया. राज्यों में वंशवाद से बाहर के लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठाने के लिए हर संभव प्रयास किए जाने की जरूरत है. एक हद तक निर्दयता की आवश्यकता है.
प्रतियोगिता
परिस्थितियों ने कांग्रेस को गैर-वंशवादी राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने पर मजबूर कर दिया और देश ने राहत की सांस ली. एक कलंक मिट गया. उस भावना को राज्य और जिला स्तर तक ले जाने की जरूरत है. वर्तमान में अधिकांश मामलों में राज्यों के नेता बिना पर्याप्त परीक्षण के या उस परीक्षण में विफल होने के बाद भी शीर्ष पर पहुंच गए हैं. अगर पार्टी चुनाव चक्र के बाहर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है तो इसमें बदलाव की जरूरत है. कुछ महीनों की समय-सीमा के भीतर उम्मीदवारों के बीच खुली और निष्पक्ष लोकप्रियता प्रतियोगिता के लिए रास्ता बनाने से बेहतर क्या तरीका हो सकता है और वह भी केंद्रीय नेतृत्व द्वारा कोई प्राथमिकता बताए बिना और फिर संगठनात्मक और वैचारिक मामलों के साथ-साथ रणनीति और कार्यनीति पर चर्चा करने के लिए AICC सत्र आयोजित करना? इससे कांग्रेस के सही मायनों में लोकतांत्रिक पार्टी होने के दावे और महत्वाकांक्षा को बल मिलेगा. कांग्रेस का स्वास्थ्य राष्ट्रीय राजनीति के लिए महत्वपूर्ण है.
नई यात्रा
यह बात हमेशा सच रहेगी कि लोकतांत्रिक दल अधिनायकवादी विश्वदृष्टि वाले दलों से अलग हैं, जिसमें खुली चर्चा बर्दाश्त नहीं की जाती और शीर्ष से आया शब्द ही कानून होता है. ऐसी पार्टियां चौबीसों घंटे राजनीति करती हैं. उनके लिए हर आदेश कानून है, विचलन की कोई गुंजाइश नहीं है. कांग्रेस उस मॉडल की नकल नहीं कर सकती. अगर चर्चा को प्रोत्साहित किया जाए और खुले चुनाव हों तो पार्टी में अंतर्निहित ताकत होगी. यह विशेष रूप से तब सच है, जब यह जरूरतमंदों के लिए प्रासंगिक प्रश्नों को संबोधित करना चाहता है, न कि मोदी मॉडल की राजनीति के मजदूरों को आकर्षित करना चाहता है- जिसका एकमात्र उद्देश्य वोट हासिल करना है. कांग्रेस ने अभी-अभी अपनी नई यात्रा शुरू की है. वह अपने पुराने, अवांछनीय तरीकों पर वापस जाने का जोखिम नहीं उठा सकती.
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