रोज़गार के निष्पक्ष और पारदर्शी अवसर न मिले, तो उत्तराखण्ड में यह अंधड़ फिर उठेगा
एक पच्चीस साल का अल्हड़ युवक जिस तरह के धमाल मचाता है, उसी तरह की धर धमचक पच्चीस वर्षीय उत्तराखण्ड में मची है। राज्य में एक ओर पेड़ों की शाखाओं पर उम्मीद की फूटती कोंपलें हैँ, तो दूसरी ओर जगह जगह टूटे सपनों की किरचने। यह एक आकार लेती, और पहली बार निसृत नदी द्वारा अपने तटों की तोड़ फोड़ भी कहा जा सकता है। उत्तराखण्ड कर्मचारी भर्ती आयोग की परीक्षा में पेपर लीक के ताज़ा भंडाफोड़ ने युवको का घुँड्या राँसू ( क्रोध अभिव्यक्ति ) का नृत्य लगा दिया। पेपर लीक का धत कर्म पहले भी एकाधिक बार आयोजित हो चुका है।
उत्तर प्रदेश से अलग होने के पीछे सर्वाधिक प्रबल यहाँ के युवको की अपने अलग राज्य में, घर के आसपास रोज़गार पाने की कामना थी. यूँ तो अलग पहाड़ी राज्य की अवधारणा स्वतंत्रता पूर्व ही शहीद श्री देव सुमन ने "गढ़ देश सेवा संघ" नामक संगठन की स्थापना के साथ ही प्रकट कर दी थी। उसके बाद पिछली सदी के चौथे, पांचवें दशक में उत्तराखण्ड मूल के राष्ट्रीय कम्युनिस्ट नेता पी सी जोशी समय समय पर अलग उत्तराखण्ड राज्य की माँग उठाते रहे। कालांतर में समाज सचेतक, शिक्षाविद् देवी दत्त पंत तथा संस्कृतिकर्मी राजनेता इंद्रमणि बडोनी आदि के द्वारा "उत्तराखंड क्रांति दल " नामक राजनीतिक दल का गठन किया गया, जिसका मूल उद्देश्य ही अलग उत्तराखंड राज्य की स्थापना था।
वस्तुतः 31 साल पहले छिड़े प्रचण्ड उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की चिंगारी ही रोज़गार के मुद्दे पर भड़की थी। तत्कालीन अविभाजित उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार ने उत्तराखण्ड में भी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी ) का आरक्षण उत्तराखण्ड में भी लागू कर दिया, जिनकी संख्या यहाँ नगण्य अथवा लगभग शून्य थी. ज़ाहिर है कि इस प्रावधान से यहाँ के पर्वतीय निवासियों का हक़ वृहद उत्तर प्रदेश के अभ्यर्थी मार ले जाते.
इस मुद्दे पर उत्तराखण्ड के सर्वमान्य वयोवृद्ध नेता इंद्रमणि बडोनी ने अनशन किया, तथा यह तथ्य स्थापित हो गया कि अलग राज्य के सिवाय भारी भरकम उत्तर प्रदेश के बोझ तले चरमराते उत्तराखण्ड का कोई अन्य समाधान नहीं है। अलग राज्य को लेकर छिड़े भीषण आंदोलन के बाद अनेक शहदतों, दमन तथा उत्पीड़न के बाद सन् 2000 में झारखण्ड तथा छत्तीसगढ़ के साथ अलग उत्तराखण्ड राज्य की घोषणा कर दी गई.
लेकिन शुरुआत में ही दो बड़े अपशकुन हो गये. प्रथम तो लगभग सर्वमान्य नाम 'उत्तराखण्ड' की बजाय राज्य का नाम 'उत्तरांचल' कर दिया गया. दूसरा, एक पर्वतीय स्थल गैर सैण की बजाय अस्थायी के नाम पर राजधानी नौकरशाहों की मनपसंद जगह देहरादून को घोषित कर दिया गया, जो अब तक भी यथावत है तथा भविष्य में भी इसके परिवर्तन होने की कोई संभावना नहीं है.
उत्तराखण्ड नाम के साथ जनभावनायें तथा संवेदनायें जुडी थीं. लेकिन भाजपा अपने एजेंडे के अनुसार शुरू से ही इस क्षेत्र को 'उत्तरांचल' नाम से सम्बोधित करती थी. उसके अनुसार उत्तराखण्ड शब्द में खण्ड अर्थात् अलगाव की बू आती थी. जबकि पुराणों तक में इस क्षेत्र को उत्तराखण्ड नाम से ही सम्बोधित किया गया है। जनता ने इस मनमाने परिवर्तन को अपने साथ छल समझा तथा इसका खमियाज़ा भाजपा को राज्य गठन के बाद हुए पहले चुनाव में सत्ता से बेदखल होने के रूप में भुगतना पड़ा।जबकि राज्य गठन के वक़्त केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा की सरकारें थी, तथा भाजपा इस कारण स्वाभावतः इसका श्रेय लेती थी।
राज्य की चुनी हुई पहली कांग्रेस सरकार ने जन संवेदनाओं पर मरहम लगाने अथवा उसे भुनाने की नीयत से राज्य का नाम बदल कर उत्तराखण्ड कर दिया, लेकिन मूल और सबसे प्रमुख राजधानी के मुद्दे को यथावत रहने दिया। पेपर लीक समेत अन्य सभी समस्याएं असल में राजधानी के देहरादून में होने के कारण ही आ रही हैं। उत्तराखण्ड के समाज सचेतकों समेत अधिसंख्य जन मानस की धारणा है कि राजधानी पर्वतीय क्षेत्र में होने से नौकरशाहों तथा उनके द्वारा पोषित माफियाओ का राज्य के तंत्र पर मनमाना नियंत्रण नहीं हो पाता, जैसा कि अभी है.
पर्वतीय क्षेत्र का भूगोल तथा समाज शास्त्र स्थानीय मूल निवासियों के पक्ष में होता है, जिससे उनकी पकड़ सत्ता तंत्र पर स्वाभाविक रूप से मज़बूत होती है। माफिया तथा उद्दण्ड नौकरशाहों में भी एक मनोवैज्ञानिक भय मौज़ूद रहता है।
छात्रों, युवाओं और बेरोज़गारों के आंदोलन के ख़िलाफ़ पहले आक्रामक सोशल मीडिया कैंपेन चला और फिर अचानक सीएम धामी देहरादून के परेड ग्राउंड में धरनास्थल पर पहुंच गए
पेपर लीक को लेकर उठे ताज़ा अंधड़ की गंभीरता को भाँप कर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने स्वयं बेरोज़गार युवकों के धरना स्थल पर जाकर सीबीआई जाँच की उनकी मुख्य माँग को मान कर एक समझदारी भरा निर्णय लिया है. लेकिन यह समाधान अस्थायी ही साबित होगा, यदि युवको को रोज़गार के क्षेत्र में निष्पक्ष तथा पारदर्शी अवसर न मिले।
रोज़गारी पर डाके की यह घटना कोई पहली नहीं है। कोई पता नहीं कि नकल और पेपर लीक माफिया कब से और किस रूप में यहाँ सक्रिय था। इसके पूरे तंत्र और बैक्टीरिया को निर्मूल किये बगैर इस समस्या से स्थायी मुक्ति नहीं मिलेगी और रोज़गार के निर्बाध और निष्पक्ष अवसरो के बिना राज्य गठन का उद्देश्य ही तिरोहित हो जाता है। राज्य गठन के बाद उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन कहीं गुणा अधिक बढ़ा है, यही तथ्य एक असफल राज्य की वास्तविकता उजागर कर देता है।