भारत को रूसी तेल खरीदना जारी रखना चाहिए, लेकिन Rosneft और Lukoil से नहीं

रूसी तेल खरीदने का मामला सिर्फ सस्ते ईंधन का नहीं है, बल्कि अमेरिका और चीन के बीच दोध्रुवीय प्रभुत्व को रोकने का है।

By :  T K Arun
Update: 2025-10-25 12:18 GMT
यदि रूस का लगभग 40 लाख बैरल प्रतिदिन तेल उत्पादन वैश्विक आपूर्ति से बाहर हो जाए, तो तेल की कीमतें बढ़ जाएंगी — जिससे भारत की आर्थिक संभावनाओं पर नकारात्मक असर पड़ेगा। (प्रतीकात्मक चित्र: iStock)
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भारत के पास रूस से तेल खरीदते रहने के ठोस कारण हैं — भले ही अमेरिका ने हाल ही में रूस की दो बड़ी तेल कंपनियों, Lukoil और Rosneft, पर नए प्रतिबंध लगाए हों।

भारत का हित इस बात में है कि रूस अपनी महाशक्ति की स्थिति बनाए रखे। इसके लिए मॉस्को को अपने एकमात्र सालभर चलने वाले नौसैनिक अड्डे, सेवस्तोपोल (क्रीमिया), तक अबाध पहुंच बनाए रखनी होगी।

यह तभी संभव है जब यूक्रेन तटस्थ रहे (NATO में शामिल न हो) और पूर्वी यूक्रेन पर रूस का नियंत्रण बना रहे, क्योंकि मॉस्को या सेंट पीटर्सबर्ग से क्रीमिया तक जाने वाला जमीनी रास्ता इसी क्षेत्र से होकर गुजरता है।

भारत के लिए रूसी तेल खरीदने का प्राथमिक उद्देश्य सस्ती ऊर्जा नहीं है, बल्कि भू-राजनीतिक संतुलन बनाए रखना है।

सोवियत संघ के बाद रूस का संघर्ष

रूस, 1991 में भंग हुए सोवियत संघ का उत्तराधिकारी देश है और अब भी उसके पास विकसित परमाणु शस्त्रागार मौजूद है।

हालाँकि, सोवियत इंजीनियरिंग और तकनीकी क्षमता — जो रूस को अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं से प्रतिस्पर्धा में मदद कर सकती थी — 1990 के दशक में लगभग नष्ट हो गई, जब बोरिस येल्त्सिन और उनके सहयोगियों ने राज्य-स्वामित्व वाली कंपनियों की लूट और राष्ट्रीय संपत्ति के निजीकरण का दौर चलाया।

साल 2000 में जब व्लादिमीर पुतिन सत्ता में आए, तो उन्होंने रूसी राज्य के विघटन को रोका और राष्ट्र की एकता व आर्थिक स्थिरता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास शुरू किया।

फिर भी, रूस आज भी एक निर्माणाधीन राष्ट्र है — जिसे अमेरिका के नेतृत्व वाले प्रयासों ने कमजोर किया है। अमेरिका और NATO देशों ने रूस के पूर्व वारसॉ संधि सहयोगियों को अपने पाले में खींचकर, रूस को चारों ओर से घेरने और उसे रक्षा खर्चों में उलझाने की रणनीति अपनाई।

आज पूर्व वारसॉ संधि के सभी देश — चेक गणराज्य, हंगरी, पोलैंड, बुल्गारिया, एस्तोनिया, लातविया, लिथुआनिया, रोमानिया, स्लोवेनिया, स्लोवाकिया, क्रोएशिया और अल्बानिया — NATO के सदस्य हैं।

पुतिन ने जॉर्जिया को NATO में शामिल होने से रोका, और 2014 में क्रीमिया का विलय किया, जब पश्चिमी देशों के समर्थन से यूक्रेन की मॉस्को समर्थक सरकार को अपदस्थ कर दिया गया।

क्रीमिया तक जमीनी पहुंच (Land Access) डोनबास क्षेत्र से होकर जाती है। यदि यूक्रेन तटस्थ रहता और रूस को क्रीमिया तक निर्बाध लॉजिस्टिक पहुंच देता, तो रूस को यूक्रेन पर आक्रमण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

(स्रोत: “India caught in crossfire as US sanctions jolt Russian oil trade | Capital Beat”)*

विरोधी-मॉस्को सैन्य गठबंधन

अमेरिका और उसके यूरोपीय NATO सहयोगियों ने लगातार यूक्रेन को हथियार और मदद दी है और उसे इस विरोधी-मॉस्को सैन्य गठबंधन में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया है।

रूस के लिए यह संभव नहीं था कि यूक्रेन, जो क्रीमिया और रूस के एकमात्र गर्म-पानी वाले नौसैनिक अड्डे के बीच स्थित है, NATO में शामिल हो जाए।

यूक्रेन युद्ध रूस के किसी “जारी साम्राज्यवादी सपना” या “ज़ार काल के साम्राज्य” को दोबारा खड़ा करने का प्रयास नहीं है — बल्कि यह यथास्थिति (Status Quo) बनाए रखने की कोशिश है।

क्यूबा मिसाइल संकट (Cuban Missile Crisis) की शुरुआत तब हुई थी जब हवाना ने अपनी संप्रभुता का अधिकार प्रयोग करते हुए सोवियत संघ को अपनी भूमि पर परमाणु मिसाइलें तैनात करने की अनुमति दी — जबकि वह जगह अमेरिकी मुख्यभूमि से सिर्फ 90 मील दूर थी।

दुनिया की किसी बड़ी शक्ति के रणनीतिक पड़ोस में बसे देश अक्सर अपने संप्रभु अधिकारों का पूरा प्रयोग नहीं कर पाते, क्योंकि ऐसा करने के परिणाम घातक हो सकते हैं।

यूक्रेन आज यह सबक कठिन तरीके से सीख रहा है।

भारत की सामरिक स्थिति

भारतीयों को यूक्रेन के लोगों के प्रति सहानुभूति हो सकती है, लेकिन अगर रूस की शक्ति कम होती है, तो भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy) का एक हिस्सा खो देगा।

वर्तमान में, चीन ही एकमात्र ऐसी शक्ति है जो आर्थिक और तकनीकी दृष्टि से अमेरिका की बराबरी कर सकती है।

चीन न केवल भारत के कुछ क्षेत्रों पर दावा करता है, बल्कि भारत-विरोधी देशों को मदद और समर्थन देकर दक्षिण एशिया में भारत को घेरने की कोशिश करता है।

अभी भारत को अमेरिकी सहयोग की जरूरत है ताकि चीन की महत्वाकांक्षाओं को सीमित रखा जा सके — लेकिन भारत नहीं चाहता कि ऐसा करने की कीमत पर उसे अमेरिका के निर्देशों का पालन करना पड़े।

यदि अमेरिका और चीन के अलावा कोई अन्य बड़ी शक्ति नहीं बची, तो भारत के पास राजनयिक या सामरिक संतुलन के लिए कोई विकल्प नहीं रहेगा।

इसलिए भारत के हित में है कि रूस एक प्रमुख वैश्विक शक्ति बना रहे। यही कारण है कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र (UN) में यूक्रेन मुद्दे पर रूस के खिलाफ मतदान नहीं किया।

भारत यह भी नहीं चाहता कि रूस की वित्तीय शक्ति कमजोर हो जाए, क्योंकि इससे उसका यूक्रेन में सामरिक लक्ष्य प्रभावित होगा।

यह भी एक कारण है कि भारत को रूसी तेल खरीदना जारी रखना चाहिए।

अगर रूस का लगभग 40 लाख बैरल प्रतिदिन का तेल उत्पादन वैश्विक आपूर्ति से हट जाए, तो तेल की कीमतें बढ़ेंगी और इससे भारत की आर्थिक स्थिति पर गहरा असर पड़ेगा।

Lukoil और Rosneft पर अमेरिकी प्रतिबंध
अब अमेरिका ने Lukoil और Rosneft पर प्रतिबंध लगा दिए हैं। यदि भारतीय तेल कंपनियाँ इन प्रतिबंधित रूसी कंपनियों से तेल खरीदेंगी, तो उन पर भी अमेरिकी प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं — और यह स्थिति टाली जा सकती है।

जब कोई छोटी सेना किसी बड़ी ताकत से लड़ती है, तो सीधी टक्कर (frontal confrontation) सही रणनीति नहीं होती। ऐसे में गुरिल्ला रणनीति (guerrilla tactics) अपनाना समझदारी होती है।

भारत के विकल्प

हाल तक चीन समुद्री मार्ग से रूस का सबसे बड़ा तेल खरीदार था, लेकिन वहां की राज्य-स्वामित्व वाली रिफाइनरियाँ लगभग 2 मिलियन बैरल प्रतिदिन के कुल आयात में से केवल 25 लाख बैरल प्रतिदिन का हिस्सा लेती थीं।

बाकी तेल छोटे निजी चीनी व्यापारी, जिन्हें "टीपॉट्स (Teapots)" कहा जाता है, खरीदते थे। रूस को अपनी अधिकांश तेल बिक्री Lukoil और Rosneft के माध्यम से करने की जरूरत नहीं है।

वह तेल छोटी निजी कंपनियों के जरिए बेच सकता है — जो आगे इसे अन्य व्यापारियों को बेचें, और वे इसे “रूसी स्रोत से मुक्त तेल” (non-Russian taint oil) के रूप में भारत के खरीदारों को बेच सकें।

भुगतान और व्यापारिक रास्ते 

रुपया (Rupee) और युआन (Yuan) दोनों के ही डिजिटल वर्जन ब्लॉकचेन पर मौजूद हैं। इन क्रिप्टोकरेंसी के ज़रिए भुगतान बैंकिंग चैनल्स से गुजरे बिना संभव है।

रूस ने पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद कजाखस्तान और अन्य मध्य एशियाई देशों से आयात में काफी वृद्धि की है।

रूस कजाख मुद्रा (Tenge) में भुगतान स्वीकार करने को भी तैयार है। कजाख आयातकों को अपनी निर्यात आवश्यकताओं के लिए हार्ड करेंसी (डॉलर) की जरूरत होती है, और भारत उनके लिए डॉलर स्वैप लाइन खोल सकता है।

रणनीति का सार

लचीलापन और गतिशीलता- ये दोनों किसी बड़ी शक्ति से मुकाबले में सफलता की कुंजी हैं। सही रणनीति अपनाना ज़रूरी है, न कि दबाव में आकर रणभूमि छोड़ देना और अपने सामरिक लक्ष्यों को त्याग देना।

(“The Federal” में प्रकाशित लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और संगठन की राय को अनिवार्य रूप से प्रतिबिंबित नहीं करते।)

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