क्या कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद की जंग वाकई खत्म हो गई है? शायद नहीं!
कर्नाटक कांग्रेस एक बार फिर नेतृत्व परिवर्तन की कगार पर खड़ी है। सिद्धारमैया की “मैं ही रहूंगा सीएम” की घोषणा और शिवकुमार की रणनीतिक चुप्पी दोनों मिलकर एक बड़ा संकेत दे रहे हैं—आग बुझी नहीं है, सिर्फ राख के नीचे है।;
क्या वह बनेंगे मुख्यमंत्री? क्या नहीं? मई 2023 में कर्नाटक में प्रचंड बहुमत से सत्ता में लौटने के बाद से कांग्रेस के भीतर यह सवाल लगातार गूंजता रहा है। लेकिन फिलहाल, मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने स्थिति स्पष्ट कर दी है—वह अपना पूरा कार्यकाल 2028 तक पूरा करेंगे। उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार ने भी उनकी बातों में सहमति जताई है। हालांकि, यह सहमति ज्यादा मजबूरी लगती है, न कि मन की मुराद।
सत्ता संतुलन या टालमटोल?
मुख्यमंत्री पद को लेकर सिद्धारमैया की दृढ़ता और शिवकुमार की चुप्पी कुछ ज्यादा ही “परफेक्ट” और “रिहर्स्ड” लगती है, जिसे सतही तौर पर स्वीकारना मुश्किल है। असली मुद्दा अब राजनीतिक स्थिरता का बन चुका है। भाजपा से खतरे और कांग्रेस के भीतर पहले हो चुकी टूट-फूट को देखते हुए रणनीतिकारों ने सत्ता हस्तांतरण को व्यवस्थित और शांतिपूर्ण ढंग से करने की सोच बनाई हो सकती है।
शक्ति-साझेदारी की कथित डील
कांग्रेस विधायकों के बीच यह चर्चा फिर से गरम है कि सिद्धारमैया और शिवकुमार के बीच 2.5-2.5 साल के मुख्यमंत्री पद को साझा करने का मौखिक समझौता हुआ था। यदि ऐसा था तो सिद्धारमैया को इस साल नवंबर तक पद छोड़ देना चाहिए। हालांकि, पार्टी हाईकमान—खासकर गांधी परिवार, मल्लिकार्जुन खड़गे और शीर्ष नेतृत्व अब तक इस समझौते की पुष्टि नहीं करता।
शिवकुमार की खामोशी: क्या मजबूरी या रणनीति?
2023 की चुनावी जीत के बाद, जब मुख्यमंत्री पद का चयन चल रहा था, तब डीके शिवकुमार ने शीर्ष पद के लिए जोरदार दावा ठोका था। वह कांग्रेस की जीत का रणनीतिक चेहरा थे और उनकी यह मांग पूरी तरह जायज मानी जा रही थी। चुनाव से पहले उन्होंने 136 सीटें जीतने का दावा किया था—जो सटीक निकला। इसके बावजूद, अंत में सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री और शिवकुमार को डिप्टी सीएम बनाया गया।
मास लीडर बनाम मास्टर स्ट्रैटजिस्ट
शिवकुमार जहां संगठन के चतुर रणनीतिकार माने जाते हैं। वहीं, सिद्धारमैया को जन नेता और अनुभवी प्रशासक का दर्जा प्राप्त है। 2013 से 2018 तक उनका एक सफल कार्यकाल भी रहा है। दोनों नेताओं की साझा जोड़ी ने कांग्रेस को चुनाव में जबरदस्त जीत दिलाई। हालांकि, 136 विधायकों में से बड़ी संख्या सिद्धारमैया के वफादार माने जाते हैं, लेकिन शिवकुमार भी कमजोर नहीं हैं।
कांग्रेस हाईकमान के लिए मुश्किल स्थिति
हाईकमान के लिए यह एक "हॉब्सन की चॉइस" बन चुकी है। यदि शिवकुमार की मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा को दरकिनार किया गया तो बगावत का खतरा है। लेकिन यदि सिद्धारमैया को पद से हटाया गया तो भी पार्टी में भीतरखाने असंतोष भड़क सकता है। 2019 में कांग्रेस-जेडीएस सरकार के पतन के समय भी यही हुआ था। उस वक़्त कहा गया था कि सिद्धारमैया समर्थकों ने कुमारस्वामी सरकार के खिलाफ पर्दे के पीछे से काम किया था।
शिवकुमार का प्रभाव और विवाद
शिवकुमार की स्थिति आज भी प्रभावशाली है। उन्होंने जातिगत जनगणना की रिपोर्ट को खारिज करवाया। वे अब भी कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष बने हुए हैं, जबकि पार्टी में ही कुछ लोग उन्हें हटाने की मांग कर रहे हैं। रामनगर से कांग्रेस विधायक इक़बाल हुसैन ने खुलेआम मुख्यमंत्री बदलने की मांग की—हालांकि उन्हें नोटिस भेजा गया, लेकिन यह सिर्फ औपचारिकता मानी जा रही है।
वर्तमान सरकार की परफॉर्मेंस और चुनौतियां
जहां सिद्धारमैया MUDA और वाल्मीकि घोटालों में सवालों के घेरे में आए हैं, वहीं शिवकुमार RCB समारोह में भगदड़ और मौतों के चलते आलोचना का शिकार हुए। इसके बावजूद, दोनों नेताओं के पास अब भी बड़ी जन और संगठनात्मक पकड़ है।