प्रोफेसर महमूदाबाद विवाद: सुप्रीम कोर्ट के रवैये पर सवाल?
यह मामला एक चेतावनी बनकर उभरता है कि न्यायपालिका को भी वैचारिक पूर्वाग्रहों या सामाजिक दबावों से दूर रहकर वैज्ञानिक और संवैधानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। यह भी जरूरी है कि अदालतें अतिरिक्त सावधानी बरतें, ताकि लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कोई आंच न आए।;
ऑपरेशन सिंदूर पर किए गए दो फेसबुक पोस्ट को लेकर अशोका यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद के खिलाफ चल रही जांच को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (SIT) की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाए हैं। अदालत ने कहा कि SIT ने अपनी सीमाएं लांघ दी हैं और उसे केवल सोशल मीडिया पोस्ट की कंटेंट तक ही सीमित रहना चाहिए। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाला बागची की पीठ ने SIT को चेतावनी देते हुए कहा कि यह "अपनी दिशा भटक रही है" और उसे प्रोफेसर के विदेशी दौरों या इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की जब्ती की बजाय केवल उन दो पोस्ट की जांच करनी चाहिए।
जस्टिस सूर्यकांत ने चुटकी लेते हुए कहा कि "आपको प्रोफेसर की नहीं, डिक्शनरी की ज़रूरत है।" उन्होंने स्पष्ट किया कि महमूदाबाद को बार-बार तलब करने की जरूरत नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि उसने केवल उन्हें उन विषयों पर लिखने से रोका है, जो न्यायिक विचाराधीन हैं — अन्य मुद्दों पर वे स्वतंत्र हैं।
सुप्रीम कोर्ट के रुख में नरमी
यह टिप्पणी 21 मई की सुनवाई की तुलना में सुप्रीम कोर्ट के रुख में स्पष्ट नरमी को दर्शाती है। तब अदालत ने प्रोफेसर के पोस्ट को “डॉग व्हिसलिंग” कहा था और उन पर "राष्ट्रीय संकट के समय सस्ती लोकप्रियता" बटोरने का आरोप लगाया था। इसके बाद हरियाणा DGP को तीन IPS अधिकारियों की SIT गठित करने का आदेश दिया गया था, ताकि इन पोस्ट्स की "भाषाई जटिलता" को समझा जा सके।
विश्लेषकों का मानना है कि अदालत खुद को एक असहज स्थिति से निकालने की कोशिश कर रही है, जिसे उसने खुद ही बनाया। आलोचना यह भी है कि ऐसी जांच एक पुलिस टीम को सौंपना — जिसमें भाषावैज्ञानिक विशेषज्ञता नहीं होती — तर्कसंगत नहीं है। क्या अदालत को उम्मीद थी कि पुलिस अधिकारी एक भाषाविद् या साहित्य समीक्षक की तरह पोस्ट की गहराई समझेंगे या फिर वे किसी आधुनिक अभिनवगुप्त या नोम चॉम्स्की की अपेक्षा कर रहे थे, जो वर्दी में छिपा हो?
अगर इन पोस्ट्स की व्याख्या इतनी जरूरी थी तो भाषा विशेषज्ञों या साहित्यकारों की राय ली जा सकती थी। दिल्ली में अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ रखने वाले विशेषज्ञों की कमी नहीं है। फिर भी, अदालत ने एक भाषाई विवाद को कानून-व्यवस्था से जुड़ी जांच में तब्दील कर दिया। एक विश्लेषक ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि "यह वैसा ही है जैसे किसी बढ़ई से मेडिकल डायग्नोसिस सॉफ्टवेयर का मूल्यांकन करवाना।" जब अधिकारी कानून-व्यवस्था के लिए प्रशिक्षित हैं तो उनसे भाषा की गूढ़ता को समझने की अपेक्षा करना अनुचित है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संविधान
संविधान का अनुच्छेद 19(2) कहता है कि सरकार केवल आठ विशेष आधारों पर ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकती है — जैसे कि भारत की संप्रभुता, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, मानहानि आदि। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा था कि "किसी व्यक्ति के कहे या लिखे शब्दों का मूल्यांकन उन लोगों के मापदंड पर नहीं किया जा सकता, जिन्हें हमेशा असुरक्षा की भावना होती है या जो हर आलोचना को खतरे के रूप में देखते हैं।" (इमरान प्रतापगढ़ी बनाम गुजरात राज्य, 2025)
न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल
इस मामले ने न्यायपालिका की प्राथमिक जिम्मेदारी पर सवाल खड़ा कर दिया है। अदालत को संविधान और पहले दिए गए निर्णयों के आलोक में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेना चाहिए था, बजाय इसके कि वह इस मामले की गहराई में जाकर उलझती जाती।
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