40 दिन में एक भाषा पर ग्रहण, क्या जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ा दुश्मन
भाषाओं के विलुप्त होने की दर भारत में दुनिया के किसी भी देश से अधिक है| इसका एक कारण सरकार की जनगणना से सम्बंधित नीतियां भी हैं|
languages extinction: दुनिया से औसतन 40 दिनों के अंतराल पर एक भाषा विलुप्त हो जाती है| यह एक खतरनाक तथ्य है, पर दुखद यह है कि जलवायु परिवर्तन इस विलुप्तीकरण को पहले से अधिक तेज कर रहा है| यदि इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो वर्तमान में दुनिया में बोली जाने वाली लगभग 7000 भाषाओं में से आधी से अधिक इस शताब्दी के अंत तक विलुप्त हो चुकी होंगीं| हमारा इतिहास कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के विलुप्तीकरण के बारे में बहुत कुछ बताता है – ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, साउथ अफ्रीका और अर्जेंटीना में जनजातियों द्वारा बोली जानी वाली कुल भाषाओं में से आधे से अधिक वर्ष 1920 तक विलुप्त हो चुकी थीं| क्वींस यूनिवर्सिटी के स्ट्रेथी लैंग्वेज यूनिट की निदेशक अनास्तासिया रिएह्ल ने विलुप्त होती भाषाओं पर वर्षों से अनुसंधान किया है और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के लिए इस विषय पर रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें कहा गया है कि दुनिया की भाषाओं के लिए, विशेष तौर पर जनजातीय भाषा और इसमें सम्मिलित ज्ञान के लिए, जलवायु परिवर्तन ताबूत की आख़िरी कील की तरह काम कर रहा है|
भारत में भाषा के विलुप्त होने की दर अधिक
भाषाओं के विलुप्त होने की दर भारत में दुनिया के किसी भी देश से अधिक है| इसका एक कारण सरकार की जनगणना से सम्बंधित नीतियाँ भी हैं| वर्ष 1971 की जनगणना के समय से उन भाषाओं की सूचि नहीं बनाई जाती, जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10000 से कम हो| यही कारण है कि वर्ष 1961 की जनगणना में देश की 1652 भाषाओं का जिक्र है, जबकि वर्ष 1971 के बाद सरकारी आंकड़ों में यह संख्या अचानक गिरकर 108 तक पहुँच गयी| यूनेस्को के अनुसार भारत में 197 भाषाएँ संकटग्रस्त हैं, यह संख्या दुनिया में सबसे अधिक है| इसके बाद अमेरिका में 191, ब्राज़ील में 190, चीन में 144 और इंडोनेशिया में 143 भाषाएँ संकट ग्रस्त हैं|
वर्ष 2010 में भारत में भाषाओं के सर्वेक्षण के अनुसार कुल 780 भाषाएँ हैं, जिनमें से 600 भाषाओं पर विलुप्तीकरण का खतरा बढ़ता जा रहा है| इस सर्वेक्षण के अनुसार पिछले 60 वर्षों के दौरान देश में 250 से अधिक भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं| यूनेस्को के अनुसार भारत में भाषाओं और बोलियों की विविधता दुनिया में सर्वाधिक है, और यहाँ एक प्रचलित कहावत है कि हरेक 11 किलोमीटर पर भाषा या बोली बदल जाती है| यूनेस्को के अनुसार हमारे देश में 19500 भाषाएँ या बोलियाँ मातृभाषा के तौर पर बोली जाती हैं, जिनमें से महज 121 भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10,000 से अधिक है| सिक्किम की भाषा, मांझी, को महज चार लोग बोलते हैं और ये सभी एक ही परिवार के हैं| पूर्वी भारत की महाली भाषा, अरुणाचल प्रदेश की कोरो, गुजरात की सिदी और असम की दिमासा भाषा भी विलुप्तीकरण के कगार पर है| हमारे देश में अधिकतर भाषाओं को जनजातियों ने सहेज कर रखा है, पर जलवायु परिवर्तन, तापमान बृद्धि, प्राकृतिक संसाधनों के विनाश और विकास की अंधाधुंध दौड में जनजातियों के साथ उनकी भाषाएं भी तेजी से विलुप्त हो रही हैं|
भाषा पर ग्रहण में जलवायु परिवर्तन का योगदान
तमाम देशों के कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कटौती के खोखले दावों के बीच वायुमंडल में इसका उत्सर्जन और अनुपात निर्बाध गति से बढ़ता जा रहा है| वैज्ञानिकों के अनुसार यदि कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन की दर पर लगाम नहीं लगाया गया तो जल्दी ही पृथ्वी रहने लायक नहीं बचेगी| इस बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन का असर अचानक बाढ़, भयंकर सूखा, चक्रवातों, अत्यधिक गर्मी और सर्दी, जंगलों की आग इत्यादि के तौर पर पूरी दुनिया में पूरे वर्ष देखने को मिल रहे हैं|
पर, इसका सबसे घातक प्रभाव सागर तल का लगातार बढ़ना है, जिससे दुनियाभर में सागर तटों और द्वीपों का बड़ा हिसा जल्दी ही डूब जाएगा| बुरी खबर यह है कि सागर तल के बढ़ने की दर लगातार बढ़ती जा रही है| 19वीं शताब्दी के अंत तक सागर तल के बढ़ने की दर औसतन 20 सेंटीमीटर रही, पर अनुमान है कि अब से वर्ष 2050 तक यह दर 25 से 30 सेंटीमीटर रहने वाली है| दूसरी तरफ सागर तटों पर बाढ़ की घटनाएं 10 गुना बढ़ जायेंगीं| जाहिर है जलवायु परिवर्तन के कारण अनेक द्वीपों का नामो-निशाँ जल्दी ही दुनिया के नक़्शे से हमेशा के लिए मिट जाएगा| इन द्वीपों पर दुनिया की अनेक जनजातियाँ रहती हैं, और हरेक जनजाति की अपनी एक विशिष्ट भाषा है| जब जनजातियों पर संकट आएगा तब उनकी भाषा भी प्रभावित होगी और संभव है अनेक भाषाएँ हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएँ|
वैश्वीकरण और आबादी के बड़े पैमाने पर विस्थापन के कारण अधिकतर भाषाएँ वर्तमान में संकट में हैं क्योंकि विस्थापन के बाद नए जगह पर वह भाषा नहीं बोली जाती है, या फिर विस्थापितों की भाषा को नया समाज तिरस्कार की नज़रों से देखता है| समस्या यह है कि विस्थापन और आबादी के पलायन को जलवायु परिवर्तन बढाता जा रहा है| इस भाषाओं के साथ एक तरीके की क्रूरता ही कहा जाएगा कि अधिकतर भाषाएँ उन क्षेत्रों में बोली जाती हैं, जो क्षेत्र तेजी से आबादी के नहीं रहने लायक बनते जा रहे हैं|
इस देश में बोली जाती है 110 भाषा
दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में वानुआतु एक देश है जिसका कुल क्षेत्रफल 12189 वर्ग किलोमीटर है, पर यहाँ 110 भाषाएँ बोली जाती हैं, यानि औसतन हरेक 111 वर्ग किलोमीटर पर एक भाषा| भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार भाषा का यह घनत्व दुनिया में सर्वाधिक है| दुखद यह है कि यह एक ऐसा देश है जिसे बढ़ते सागर तल के कारण डूबने का ख़तरा सबसे अधिक है| द्वीप या सागर तटीय क्षेत्र चक्रवातों की बढ़ती आवृत्ति और तेजी से बढ़ते सागर तल से खतरे में हैं तो दूसरी तरफ मुख्य भूमि पर तापमान बृद्धि और सूखा के कारण कृषि और मत्स्य पालन पर संकट है| ऐसे में इन क्षेत्रों से जनजातियों का पलायन बढ़ता जा रहा है| ऐसे पलायन के बाद आबादी तो दूसरी जगह पहुँच जाती है, पर स्थानीय भाषा और संस्कृति वहीं छूट जाती है और फिर विलुप्त हो जाती है| जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते प्राकृतिक आपदाओं से पूरी दुनिया की आबादी प्रभावित हो रही है और विस्थापन की दर बढ़ती जा रही है| पिछले 10 वर्षों के दौरान दुनिया में होने वाले कुल विस्थापन में से 20 प्रतिशत से अधिक एशिया और प्रशांत क्षेत्र में किये गए हैं| इससे अनेक भाषाएँ विलुप्त हो गईं हैं, या फिर विलुप्तीकरण के कगार पर हैं| समस्या यह है कि भारत, फिलीपींस और इंडोनेशिया में अनेक भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले 100 से भी कम है|
अ मैप ऑफ़ क्रिटिकली इनडेजर्ड लैंग्वेजेज में दुनिया की 577 ऐसी भाषाओं का विस्तार में वर्णन है जो तेजी से विलुप्त हो रही हैं| इसके अनुसार ऐसी भाषाओं का मुख्य केंद्र अफ्रीका, प्रशांत क्षेत्र और हिन्द महासागर के पास के देश हैं| जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि का सबसे अधिक असर भी इन्हीं क्षेत्रों पर पड़ रहा है| संयुक्त राष्ट्र के यूनेस्को के अनुसार जब किसी भाषा को बोलने वालों की संख्या 10000 से कम हो जाती है तब वह भाषा संकटग्रस्त हो जाती है, और विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ने लगती है| इस दौर में अधिकतर जनजातीय भाषाएँ संकटग्रस्त हैं, इसी समस्या पर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 से 2032 तक के दशक को जनजातीय भाषा दशक के तौर पर मनाने का ऐलान किया है| इस दशक की घोषणा करते हुए दिसम्बर 2022 में संयुक्त राष्ट्र सामान्य सभा के अध्यक्ष कस्बा कोरोसी ने कहा कि भाषा के नष्ट होने से केवल बहुमूल्य ज्ञान ही नहीं बल्कि पूरे समाज की सांस्कृतिक विविधता को आघात पहुंचता है|
क्या कहते हैं जानकार
लिविंग टंग इंस्टिट्यूट फॉर इनडेजर्ड लैंग्वेजेज के निदेशक डॉ ग्रेगरी एंडरसन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण हम भाषा और संस्कृति के विनाश की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं और अगली शताब्दी तक बहुत कुछ ख़त्म हो चुका होगा| जब किसी भाषा को बोलने वाला अंतिम आदमी भी चला जाता है तब समाज पर यह एक क्रूर प्रहार है| दिक्कत यह है कि जनजातियों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर सबसे पहले उनकी भाषा ही छीनी जाती है| अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और स्कैन्डिनेविया में यही किया जा रहा है – बच्चों को स्कूलों में और बड़ों को कार्यस्थलों पर किसी भी स्थिति में अपनी भाषा में बात करने का अधिकार नहीं है| दूसरी तरफ अनेक अध्ययन बताते हैं कि अपनी मातृभाषा में बात ना कर पाने के कारण लोग मानशिक रोगों का शिकार हो सकते हैं और आपकी आदतें बदल सकती हैं| बांग्लादेश में किये गए एक अध्ययन के अनुसार अपनी मातृभाषा में बात करने वाले युवा शराब का कम सेवन करते हैं और हिंसा से दूर रहते हैं|
विलुप्त होती कुछ भाषाएँ ऐसी भी हैं जिन्हें बहुत प्रयास के बाद बचाया जा सका है| अमेरिका में हवाइयन भाषा को बोलने वाले वर्ष 1970 में महज 2000 लोग बचे थे, पर अब इनकी संख्या 20000 से अधिक पहुँच गयी है| न्यूज़ीलैण्ड में माओरी जनजाति के केवल 5 प्रतिशत युवा अपनी भाषा बोलते थे, पर अब इनकी संख्या 25 प्रतिशत से भी अधिक है| दूसरी तरफ हमारे देश में कुछ ऐसी जनजातीय भाषाएँ भी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है, अब इसमें साहित्य भी लिखा जा रहा है और कुछ भाषाओं में तो फ़िल्में भी बन रही हैं| ऐसी भाषाओं में सबसे आगे है – ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में बोली जाने वाली भाषा गोंडवी| महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात में बोली जाने वाली भीली, मिजोरम की मिज़ो, मेघालय की गारो और खासी और त्रिपुरा की कोकबोरोक को बोलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है|
अमेरिका के प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार जनजातीय भाषाओं के विलुप्तिकरण के कारण औषधीय पौधों के गुण और उपयोग से सम्बंधित बहुमूल्य ज्ञान भी धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है| इस शोधपत्र के अनुसार भाषाओं के नष्ट होने से केवल वनस्पतियों की पारंपरिक जानकारियाँ ही नष्ट नहीं हो रही बल्कि जंतुओं, जैव-विविधता और पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की परम्परागत जानकारी ही नष्ट होती जा रही है|
इस शोधपत्र के मुख्य लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ़ ज्यूरिख में वनस्पति विज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉ रोड्रिगो कैमरा लेरेट हैं| डॉ रोड्रिगो के अनुसार भाषा के नष्ट होने से केवल बहुमूल्य ज्ञान ही नहीं बल्कि पूरे समाज की सांस्कृतिक विविधता को आघात पहुंचता है| इस अध्ययन के लिए कुल 12000 ज्ञात औषधीय गुणों वाले वनस्पतियों का चयन किया गया, जिनका प्राकृतिक आवास उत्तरी अमेरिका, उत्तर-पश्चिम अमेजोनिया और न्यू गिनी था| इन औषधीय गुणों वाले वनस्पतियों के प्राकृतिक आवास के आस-पास कुल 230 जनजातीय भाषाएँ बोली जाती हैं|
अमेरिका से आई हैरान करने वाली जानकारी
इस अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने देखा कि उत्तरी अमेरिका में औषधीय गुणों वाले वनस्पतियों की 73 प्रतिशत से अधिक जानकारी केवल एक जनजातीय भाषा में कैद है, जबकि अमेजोनिया में 91 प्रतिशत जानकारी केवल एक भाषा में और न्यू गिनी में 84 प्रतिशत जानकारी केवल एक जनजातीय भाषा में उपलब्ध है| जाहिर है इस एक भाषा के विलुप्त होते ही बहुत सारे औषधीय वनस्पतियों का पीढी-दर-पीढी चला आ रहा व्यावहारिक ज्ञान हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा| इस शोधपत्र के अनुसार ऐसे वनस्पतियों का व्यावहारिक ज्ञान जिन जनजातीय भाषाओं में उपलब्ध है, उनमें से अमेजोनिया में शत-प्रतिशत भाषाएँ विलुप्तिकरण की तरफ बढ़ रही हैं, जबकि उत्तरी अमेरिका और न्यू गिनी में क्रमशः 86 प्रतिशत और 31 प्रतिशत भाषाएं विलुप्त हो रही हैं|
डॉ रोड्रिगो कैमरा लेरेट के अनुसार उन्होंने पूरी दुनिया में ऐसा अध्ययन नहीं किया है, पर इतना तय है कि पूरी दुनिया में भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं या खतरे में हैं और इनके साथ ही पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की व्यावहारिक जानकारी समाप्त हो रही है| हम जैव-विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए बहुत सारे अंतर्राष्ट्रीय समझौते कर रहे हैं, पर जनजातीय भाषाओं के विलोप पर खामोश रहते हैं| डॉ रोड्रिगो कैमरा लेरेट के अनुसार दुनिया के सभी देश यदि सही में पारिस्थितिकी तंत्र और जैव-विविधता को बचाना चाहते हैं तो उन्हें इससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान की बहुत जरूरत होगी, पर दुखद यह है कि पारंपरिक ज्ञान जनजातीय भाषाओं के साथ ही नष्ट होता जा रहा है|
जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी स्थित सेंटर ऑफ़ लिंग्विस्टिक्स की आयेशा किदवई के अनुसार सबसे अधिक खतरे में जनजातीय भाषाएँ हैं| ये भाषाएँ वनस्पतियों, जन्तुवों और परम्परागत औषधियों से सम्बंधित ज्ञान का अथाह भण्डार हैं| पर समस्या यह है कि इस ज्ञान को लिखा नहीं जाता बल्कि ये एक पीढी से दूसरी पीढी तक सुनकर ही पहुँचती हैं|
भारत में अब तक 220 से अधिक भाषा विलुप्त
गुजरात के वड़ोदरा स्थित भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर के निदेशक गणेश डेवी के अनुसार वर्ष 1961 से अबतक देश में 220 से अधिक भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं, और अगले 50 वर्षों में 150 से अधिक भाषाएँ विलुप्त हो जायेंगीं| इनके अध्ययन के अनुसार देश में 780 भाषाएँ इस्तेमाल की जा रही हैं और इसमें से 600 से अधिक संकटग्रस्त हैं| गणेश डेवी के अनुसार सिक्किम की माझी, पूर्वी भारत की महाली, अरुणाचल प्रदेश की कारो, गुजरात की सिदि| असम की दिमासा और बिरहोर सबसे अधिक संकट में हैं और ये सभी जनजातीय भाषाएँ हैं| संविधान की आठवीं सूचि में शामिल दो प्रमुख जनजातीय भाषा – बोडो और संथाली – को बोलने वालों की संख्या भी लगातार कम हो रही है|
दुनिया में पूंजीवाद के विकास ने पारिस्थितिकीतंत्र, पर्यावरण, संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं को विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है और इसके साथ ही भाषाएँ भी नष्ट हो रही हैं| भाषाओं के साथ ही पारंपरिक ज्ञान का अथाह भण्डार भी नष्ट हो रहा है, पर आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस और रोबोट्स वाले युग में क्या हम अपनी भाषा को सुरक्षित रख पायेंगें?