कम डॉक्टर, अधूरे अस्पताल और बर्बाद होते बजट
CAG रिपोर्ट की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि पैसा नहीं था। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि पैसा होते हुए भी इस्तेमाल नहीं किया गया। ऐसे में दिल्ली को अब किसी नई समिति की ज़रूरत नहीं। किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस की ज़रूरत नहीं। ज़रूरत है तो बस कार्रवाई की।;
दिल्ली सिर्फ राजधानी नहीं, एक विशाल नाटकशाला है— जहां हर पांच साल में वादों की पटकथाएं लिखी जाती हैं, कैमरों के सामने घोषणाओं के नाटक मंचित होते हैं और मंच के पीछे— सरकारी अस्पतालों के गलियारों में लोग धीरे-धीरे दम तोड़ते हैं। यह वही शहर है, जो एम्स की चकाचौंध देखकर खुद को मेडिकल हब मान लेता है। लेकिन सरकारी अस्पतालों के बाहर स्ट्रेचर पर दम तोड़ते मरीजों से मुंह फेर लेता है। एक ऐसा शहर, जहां मेडिकल टूरिज्म तो फलता-फूलता है। लेकिन यहां के गरीबों के लिए डॉक्टर तक पहुंचना किसी तीर्थयात्रा से कम नहीं और अब, इस तमाशे के पर्दे के पीछे की हकीकत हमारे सामने आई है—नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट के रूप में।
रिपोर्ट ठंडी और बेरहम है। डॉक्टरों की कमी, अधूरे अस्पताल, बर्बाद होते बजट और निजी अस्पतालों की मनमानी। अगर स्वास्थ्य व्यवस्था कोई मरीज होती तो यह आईसीयू में वेंटिलेटर पर पड़ी होती, जहां डॉक्टर खुद यह तय करने में लगे होते कि इसे बचाने की कोशिश भी करनी चाहिए या नहीं। लेकिन यह कहानी सिर्फ सरकारी रिपोर्ट तक सीमित नहीं है। असली कहानी उन लोगों की है, जो हर दिन अस्पतालों की चौखट पर दम तोड़ते हैं।
मार्च 2022 तक, दिल्ली स्वास्थ्य विभाग में 21% स्टाफ की कमी थी। शिक्षण विशेषज्ञ 30% कम, गैर-शिक्षण विशेषज्ञ 28% कम और मेडिकल अधिकारी 9% कम थे। ये सिर्फ संख्याएं नहीं हैं, ये उन मरीजों की चीखें हैं, जो अस्पताल की दीवारों से टकराकर लौट जाती हैं। डॉक्टर कम हैं, इसलिए बिस्तर नहीं मिलता। डॉक्टर कम हैं, इसलिए इलाज अधूरा रहता है। डॉक्टर कम हैं, इसलिए मौतें ज्यादा होती हैं। लेकिन यही एकमात्र समस्या नहीं है।
दिल्ली में कई निजी अस्पताल सरकारी जमीन और सुविधाओं का लाभ लेकर खड़े हुए हैं। लेकिन जब गरीब मरीजों को मुफ्त इलाज देने की बारी आती है तो ये अस्पताल दरवाजे बंद कर लेते हैं। CAG रिपोर्ट बताती है कि सरकार ने इनकी निगरानी तक नहीं की। न कोई ऑडिट, न कोई कार्रवाई। सरकार एक बार कागजों में नोटिस भेजती है और अस्पताल वाले उसे डस्टबिन में डालकर अपने वातानुकूलित चैंबर्स में आराम से बैठ जाते हैं।
अगर किसी आपदा ने दिल्ली की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोली तो वह कोविड-19 महामारी थी। अस्पतालों में बेड नहीं थे, दवाइयां खत्म हो गई थीं, ऑक्सीजन सिलेंडर ब्लैक में बिक रहे थे। मरीज मर रहे थे और सरकार सिर्फ घोषणाएं कर रही थी।
CAG रिपोर्ट बताती है कि ₹787.91 करोड़ के कोविड-19 आपातकालीन फंड में से ₹ 245.11 करोड़ खर्च ही नहीं किए गए। सोचिए, जब लोग अस्पताल के बाहर ऑक्सीजन के बिना दम तोड़ रहे थे, तब यह पैसा सरकारी खातों में सो रहा था। यह चूक नहीं थी, यह अपराध था।
लेकिन यहां सिर्फ पैसों की बर्बादी की बात नहीं है। जरूरी दवाएं खत्म हो गईं, उपकरण बेकार पड़े रहे और जब ऑर्डर देने की बारी आई, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। जो निर्णय मिनटों में लिए जाने चाहिए थे, वे महीनों तक फाइलों में दबे रहे और जो लोग उस देरी के कारण मरे, उनके लिए कोई शोक सभा तक नहीं हुई।
अगर दिल्ली की स्वास्थ्य व्यवस्था को कोई लाइलाज बीमारी लगी है तो वह है—नौकरशाही। उदाहरण के लिए, नवजात शिशुओं की देखभाल के लिए सरकार ने एक योजना चलाई थी। लेकिन ढाई साल बाद भी एक भी निजी अस्पताल इस योजना के तहत नामांकित नहीं हुआ। कारण? किसी भी अस्पताल ने "दिलचस्पी" नहीं दिखाई तो सरकार ने क्या किया? कुछ मीटिंग्स कीं, कुछ फाइलें खंगालीं और फिर वही किया जो उसे सबसे अच्छे से आता है—कुछ भी नहीं।
CAG रिपोर्ट की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि पैसा नहीं था। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि पैसा होते हुए भी इस्तेमाल नहीं किया गया। 2016-17 से 2021-22 के बीच, स्वास्थ्य अधोसंरचना के लिए आवंटित बजट का 13% से 78% हिस्सा खर्च ही नहीं किया गया। दिल्ली स्टेट हेल्थ मिशन (DSHM) के पास ₹ 510.71 करोड़ बैंक खातों में पड़े रहे। यानी अस्पतालों में सुविधाएं नहीं थीं, मरीजों को इलाज नहीं मिला और दूसरी तरफ सरकारी फंड बेकार पड़ा रहा। अगर कोई निजी कंपनी इतनी लापरवाही करती तो वह कब की बंद हो चुकी होती। लेकिन सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता।
दिल्ली का सरकारी अस्पताल अमीरों के लिए नहीं बना है। उनके लिए फोर्टिस हैं, अपोलो हैं, मैक्स हैं—सुविधाओं से भरे, वातानुकूलित कक्षों वाले, जहां डॉक्टर एक मरीज पर उतना ही समय लगाते हैं जितना सरकारी अस्पतालों में पूरी कतार के लिए नहीं दिया जाता। ग़रीबों के लिए? लंबी कतारें, झुंझलाए हुए डॉक्टर और एक व्यवस्था जो उनके जिंदा रहने को भी कोई ज़रूरी चीज़ नहीं मानती।
सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था गरीबों के लिए एक लॉटरी बन गई है—जहां बिस्तर, डॉक्टर और दवाइयां किस्मत से मिलती हैं और यह सिर्फ दिल्ली की कहानी नहीं है। यह पूरे देश की कहानी है। चुनाव से पहले अस्पतालों का उद्घाटन होता है, रिबन काटे जाते हैं, घोषणाएं होती हैं। लेकिन चुनाव बीतते ही, अस्पताल अधूरे रह जाते हैं, सुविधाएं मिलना बंद हो जाती हैं और वादे कागज़ों में दबकर दम तोड़ देते हैं।
दिल्ली विरोधाभासों की प्रयोगशाला है—जहां एक तरफ उच्च स्तरीय निजी अस्पताल विदेशी मरीजों का स्वागत करते हैं तो दूसरी तरफ सरकारी अस्पतालों में लोग ज़िंदगी की भीख मांगते हैं। एक तरफ मेडिकल टूरिज्म फल-फूल रहा है और दूसरी तरफ अपने ही नागरिक ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ रहे हैं। CAG रिपोर्ट ने इन सच्चाइयों का दस्तावेज़ीकरण तो कर दिया है। लेकिन सवाल वही है—क्या यह रिपोर्ट सिर्फ सरकारी अलमारियों की शोभा बढ़ाएगी या यह किसी बदलाव की चिंगारी बनेगी? क्या यह व्यवस्था एक और आंकड़ा जोड़कर आगे बढ़ जाएगी या इस बार जवाबदेही भी तय होगी?
दिल्ली को अब किसी नई समिति की ज़रूरत नहीं। किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस की ज़रूरत नहीं। ज़रूरत है तो बस कार्रवाई की। जवाबदेही की और सबसे ज़्यादा राजनीतिक इच्छाशक्ति की—जो सिर्फ वादे न करे, बल्कि जमीन पर बदलाव लाए।