क्यों दक्षिण भारत में काम नहीं करता धार्मिक ध्रुविकर्ण का मुद्दा

हिन्दू, मुस्लिम और इसाई दक्षिण में मिलकर रह रहे हैं, सदियों से प्रथाओं को साझा कर रहे हैं, यही वजह है कि 2024 के आम चुनाव में दक्षिण के लोगों ने इन ज़हरीले संदेशों को अनदेखा किया है

Update: 2024-05-21 14:02 GMT

 

पिछले सप्ताह मेरे के सहकर्मी ने मुझे अपनी शादी का निमंत्रण पत्र दिया. दो पन्नों का ये निमंत्रण पत्र बेहद सरल और जानकारीपूर्ण था. मुख्य समारोह रविवार को एक चर्च में होना था. उस युवक ने बताया कि वो रोमन कैथोलिक क्रिस्चियन है. निमंत्रण पत्र को देख कर मेरे मन में कुछ सवाल उठे और उनका जवाब जानने की उत्सुकता भी हुई. मेरे सवालों के जवाब में उसने बताया कि उसके परिवार ने उसकी शादी की रस्में और समारोह की योजना कैसे बनाई थी.

दो प्रथाओं का मिश्रण

युवक ने जिस तरह से बताया उससे ये स्पष्ट हो गया कि हिंदू विवाह में अपनाए जाने वाले रीति-रिवाजों और उनके परिवार द्वारा अपनाई जाने वाली परंपराओं में काफी कुछ समानताएं हैं.

उदाहरण के तौर पर, युवक जो दूल्हा बनने जा रहा था, ने बताया कि यह एक "अरेंज मैरिज" है और एक ज्योतिषी ने लड़का और लड़की की कुंडली का मिलान करने के बाद विवाह की मंजूरी दी है. कुंडली में राशि और नक्षत्र (जन्म नक्षत्र) आदि शामिल हैं. लड़के ने ये भी बताया कि उसकी राशी और लड़की की राशि एक ही है, और मैं हिंदू हूं.

जैसे-जैसे मेरी जिज्ञासा बढ़ रही थी, वैसे वैसे वो युवक विवाह की परंपराओं के बारे में बताने लगा. उसने मुझे बताया कि शादी के समय दुल्हा दुल्हन के गले में मंगलसूत्र बांधता है. दुल्हन की मांग में सिंदूर भरता है. इस दौरान शादी में शामिल हुए वर और वधु के परिजन व दोस्त जोड़े को फूल और अक्षत (हल्दी के मिश्रित वाले पवित्र चावल) देकर बधाई देते हैं.

इसके बाद सहकर्मी ने बताया कि विवाह में इसाई धर्म के किन रीती रिवाजों को अपनाया जायेगा

अपनत्व का जश्न मनाना

मेरे सहकर्मी ने जो बताया उससे जाहिर है कि ये शादी ईसाई और हिंदू रीति-रिवाजों का मिलन था. सिर्फ़ ये ही नहीं, बल्कि तमिलनाडु और आस-पास के क्षेत्रों में कई ईसाईयों ने अपनी शादी के रीती रिवाज और परम्परा हिंदू धर्म में शामिल प्रथाओं से लिया है.

अगर तमिलनाडु की बात करें तो यहाँ के कुछ इलाको में मुस्लिम महिलाओं को भी मंगलसूत्र पहने या मांग में सिंदूर लगाते देखना कोई असामान्य बात नहीं है. हालाँकि, दुसरे धर्मों से रीति-रिवाजों को अपनाना कोई सामान्य बात नहीं है, क्योंकि धर्मों के भीतर धार्मिक मतभेद हैं.

दक्षिण के कई भागों में हिंदू, ईसाई और मुसलमान सदियों से एक साथ रह रहे हैं और अपनी प्रथाओं को एक दूसरे के साथ साझा करते हुए एक-दूसरे की परंपराओं और रीति-रिवाजों को अपनाते आ रहे हैं.

उदाहरण के लिए, हिंदू पुरुषों और महिलाओं द्वारा चर्च के पास से गुजरते समय अपने चेहरे पर क्रॉस का निशान लगाना कोई असामान्य बात नहीं है. इस क्षेत्र में अंतरधार्मिक परंपराएं और यहां तक कि विवाह भी आम बात है. वास्तव में, अच्छी प्रथाओं के साथ-साथ दहेज जैसी कुछ कुप्रथाएं भी यहां घुस आई हैं, लेकिन यह एक अलग विषय है.

सद्भाव की ये संक्षिप्त कहानी इस विश्वास को बल देती है. बेशक पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से उग्र राजनीती के चलते समाज में ध्रुविकर्ण की माहौल है लेकिन इसके बावजूद भाईचारा और सम्न्जस्पूर्ण सांस्कृतिक प्रथाएं भी समाज में मौजूद हैं. अधिकांश समुदायों ने भड़काऊ संदेशों को नज़रअंदाज़ करते हुए नौकरियों और कीमतों जैसे अपने अस्तित्व के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है.

विभाजनकारी भाषण

इस विषय पर चर्चा करना ऐसे समय में महत्वपूर्ण है. जब देश में लोकसभा चुनावों के लिए प्रचार अभियान कड़वा और विभाजनकारी हो चला है. नफरत, बुलडोजर, कब्रिस्तान , भाईचारा, छापे, गिरफ्तारी और जेल आदि 2024 के लोकसभा चुनाव प्रचार के मुख्य शब्द बन कर रह गए हैं.

बेशक, कल्याणकारी उपायों, आरक्षण, सामाजिक समानता, भ्रष्टाचार, नौकरियों, असमानताओं और मूल्य वृद्धि पर चर्चा हुई है, लेकिन ये सभी विषय विभाजनकारी मुद्दों की सुनामी में कहीं बह चले हैं.

सात चरणों वाले लंबे और थकाऊ चुनाव में पहले पांच चरणों में इनमें से अधिकांश मुद्दे चुनाव प्रचार में गूंजे हैं. अब दो चरण शेष हैं, इस दौरान बयानबाजी और भी तेज होने की उम्मीद है.

लेकिन, राहत देने वाली बात ये है कि ध्रुवीकरण की तीव्रता हर राज्य में अलग-अलग रही है. दक्षिणी राज्यों में धार्मिक ध्रुवीकरण का असर बहुत कम देखने को मिला है 2024 भी इसका अपवाद नहीं है.

केरल स्टोरी

केरल में वाम मोर्चा और संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा के बीच मुकाबला है जबकि जपा तीसरी ताकत के रूप में अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही है.

दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा राजनीति को ध्रुवीकृत करने के प्रयास किए गए हैं, लेकिन उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिल पायी . पिछले हफ़्ते मलयालम सुपरस्टार ममूटी को उमके दो साल पहले की एक फ़िल्म में निभाई गई भूमिका के लिए बड़ी बेरहमी से ट्रोल किया गया.

बतौर एंटी हीरो, उन्होंने अपनी माहिर एक्टिंग के ज़रिए फ़िल्म में एक कट्टर हिंदू, जो उच्च जाति का सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी होता है, भूमिका निभाई थी. ट्रोलर्स ने उन पर हिंदू धर्म को नीचा दिखाने का आरोप लगाया और उनकी धार्मिक पहचान पर हमला किया.

वहीँ तमिलनाडु में राजनीतिक वर्ग समावेशी राजनीति और सद्भाव को अपनाने की आवश्यकता को लेकर बहुत सजग है. यहां तक कि राईट विंग यानि दक्षिणपंथी राजनितिक दल माने जाने वाले भी खुले तौर पर धार्मिक मुद्दों से दूर रहे. इसके बजाय, उन्होंने - मुख्य रूप से भाजपा ने - भ्रष्टाचार, परिवारवाद और कुप्रबंधित अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया । स्थानीय प्रतीकों, परम्पराओं को हड़पने की कोशिश की गई.

तेलुगु राज्यों के लिए दो रणनीतियाँ

पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में सभी पार्टियों ने सांप्रदायिक बहस से दूरी बना ली है क्योंकि राज्य में अल्पसंख्यकों की आबादी काफी है. तेलुगु देशम और वाईएसआरसीपी, जो चुनावों में अहम भूमिका निभा रहे हैं (राज्य में एक साथ विधानसभा चुनाव भी हुए), ने जानबूझकर अल्पसंख्यकों के अधिकारों का समर्थन किया.

टीडीपी की सहयोगी और कुछ मायनों में वाईएसआरसीपी के करीब (क्योंकि इसने संसद में भाजपा को बाहर से समर्थन दिया था) भाजपा इस मुद्दे पर चुप रही. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्होंने तेलंगाना में मुस्लिम आरक्षण के बारे में बात की, उन्होंने आंध्र प्रदेश में इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा.

हालांकि, तेलंगाना में एआईएमआईएम की मौजूदगी ने माहौल को गर्म कर दिया. बीआरएस के पतन के बाद भाजपा को इस राज्य में एक अवसर का आभास हुआ और उसने जोरदार प्रचार अभियान चलाया. हैदराबाद में भाजपा की उम्मीदवार माधवी लता ने एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी को चुनौती दी और सांप्रदायिक बहस को हवा दी. हालाँकि हैदराबाद के बाहर इस मुद्दे के बड़े पैमाने पर गूंजने की संभावना नहीं है.

पूरी तरह से 'मोदी मैजिक' पर अपनी उम्मीदें टिकाए बैठी भाजपा को राज्य में अच्छी सफलता मिलने की उम्मीद है

ब्रांड मोदी पर भरोसा

पड़ोसी राज्य कर्नाटक में भी भाजपा मोदी को ही एकमात्र संकट मोचक के रूप में देखती है. कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि मोदी चुनावों को राष्ट्रपति चुनाव की प्रकृति में बदलने में सफल रहे हैं और इसलिए उनके विरोध में कोई सुस्पष्ट प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार न होने से उन्हें बढ़त मिलती दिख रही है.

मोदी पर इसलिए भी अधिक निर्भरता है, क्योंकि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हार के बाद से भाजपा फिर से संगठित नहीं हो पाई है. कर्नाटक में पार्टी अभी भी विभाजित है. प्रज्वल रेवन्ना मामले ने भाजपा और जेडीएस के बीच गठबंधन की चमक को फीका कर दिया है.

राज्य में भाजपा के शासन के दौरान हिजाब, हलाल और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण पर विवाद सामने आए थे, लेकिन बाद में ये शोर शांत हो गया. अब राजनीति पारंपरिक हो गई है, जिसमें लिंगायत (एक प्रमुख समुदाय) और जातिगत आरक्षण शामिल हैं. ओबीसी के लिए आरक्षण कोटे के भीतर मुसलमानों के लिए एक उप कोटा और भाजपा द्वारा इसका विरोध (ये आरोप लगाते हुए कि ये आरक्षण धार्मिक आधार पर है), चुनाव प्रचार में भी शामिल रहा.

कुल मिलाकर, दक्षिण में ध्रुवीकरण के ऐसे प्रयास नहीं देखे गए जो उत्तर में देखने को मिल रहे हैं. इसका कारण सरल है - राजनीतिक दल ऐसे मुद्दे उठाने की संभावना नहीं रखते जो ज़मीन पर गूंज न सकें.

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