वोटर लिस्ट में मृतक और 'अज्ञात' नाम! SIR रिपोर्ट ने खोली पोल

बिहार में SIR के दौरान 41 लाख फर्जी वोटर मिले, 11,000 अज्ञात। पूर्व CEC गोपालस्वामी ने प्रशासनिक लापरवाही और नियमित पुनरीक्षण की कमी को जिम्मेदार बताया।;

Update: 2025-07-22 09:32 GMT

हाल ही में बिहार में विशेष मतदाता पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) अभियान के दौरान जो खुलासे हुए, उसने देश की चुनावी प्रणाली की साख पर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस अभियान में सामने आया कि बिहार की मतदाता सूची में 41 लाख से अधिक फर्जी नाम दर्ज हैं, जिनमें से 11,000 से ज्यादा लोग 'अज्ञात' यानी non-traceable हैं। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने The Federal से बात करते हुए बताया कि ये कोई साधारण गलती नहीं, बल्कि लंबे समय से चली आ रही प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा है।

2004 के बाद ठप हुआ गहन पुनरीक्षण

एन. गोपालस्वामी ने बताया कि 2004-05 के बाद से मतदाता सूची का गहन पुनरीक्षण (Intensive Revision) बंद कर दिया गया। पहले हर 5 साल में एक बार विधानसभा चुनावों से पहले घर-घर जाकर मतदाता सूची को अपडेट किया जाता था। लेकिन अब वह अभ्यास ठप है, और बुनियादी रिकॉर्ड प्रबंधन भी कमजोर हो गया है।

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मृतक भी वोटर लिस्ट में दर्ज

 2.5% मतदाता ऐसे हैं जो अब जीवित नहीं हैं, फिर भी उनका नाम सूची में बना हुआ है। यदि नियमित पुनरीक्षण होता, तो यह स्थिति उत्पन्न नहीं होती।

हर 5 साल में जरूरी है SIR

गोपालस्वामी का मानना है कि SIR को एक नियमित प्रक्रिया बना देना चाहिए। इससे मृतकों, स्थानांतरित लोगों और फर्जी नामों को हटाकर सूची को साफ किया जा सकेगा।

पते पर न रहने वाले लोग भी मतदाता

BLOs (Booth Level Officers) ने बताया कि कई मतदाता ऐसे पते पर दर्ज हैं जहां वे रहते ही नहीं हैं। यह दर्शाता है कि बिना सही जांच के लोगों को मतदाता बना दिया गया, जो प्रणाली की गंभीर खामी है।

मतदाता प्रतिशत में गड़बड़ी

बिहार में 5% मतदाता या तो ग़लत पते पर हैं या ग़ायब हैं। इससे मतदान प्रतिशत पर असर पड़ता है। यदि इन फर्जी नामों को हटाया जाए, तो मतदान प्रतिशत 56% से बढ़कर 61% हो सकता है, जो राष्ट्रीय औसत 65.79% के ज्यादा करीब है।

प्रवास से बढ़ती है दिक्कत

उन्होंने प्रवासन (Migration) को भी एक कारण बताया। जैसे चेन्नई में दीपावली और पोंगल पर हजारों लोग अपने गांव लौटते हैं और कई बार दो जगह पंजीकरण हो जाता है। यह समस्या बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में ज्यादा गहरी है जहां बाह्य प्रवासन अधिक होता है।

डुप्लिकेट नामों की समस्या

2000–2001 में एक नीति बदलाव के तहत Form 6 में पुराना पता भरना अनिवार्य नहीं रहा, जिससे डुप्लिकेट पंजीकरण की समस्या बढ़ गई। उस समय बायोमेट्रिक सिस्टम नहीं था, जिससे पहचान की पुष्टि मुश्किल थी।

आधार लिंकिंग से उम्मीद

अब आधार कार्ड की मदद से फर्जी पंजीकरण को रोकने की दिशा में उम्मीदें जगी हैं। हालांकि, अब भी सुधार के लिए चुनाव आयोग को नियमित निरीक्षण और सत्यापन को प्राथमिकता देनी होगी।

दस्तावेज़ देना जरूरी

जब इतने बड़े स्तर पर विसंगतियां सामने आती हैं, तो व्यक्ति को अपनी नागरिकता और पहचान साबित करनी होगी। यदि ऐसा न किया जाए, तो मृतकों और डुप्लिकेट नामों का सूची में बने रहना तय है

बिहार में मतदाता सूची में पाई गई गंभीर खामियां सिर्फ एक राज्य की नहीं, बल्कि पूरे देश के चुनावी पारदर्शिता तंत्र पर सवाल उठाती हैं। एन. गोपालस्वामी जैसे विशेषज्ञों की राय है कि बिना हर 5 साल में SIR को अनिवार्य किए, चुनावी व्यवस्था की साख को बहाल करना मुश्किल है।

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