‘टीवीके की बार-बार की नाकामियां करूर भगदड़ में खत्म हुईं’: कैमरामैन ने याद किया ‘अराजकता का पैटर्न’
टीवीके की सभी पांच रैलियों में एक चिंताजनक पैटर्न दिखा, बड़े-बड़े हुजूम में बच्चों की मौजूदगी, लोगों का बेहोश होना, बेकार सुविधाएँ और शून्य भीड़ नियंत्रण।
आज (28 सितम्बर) जब मैंने करूर सरकारी अस्पताल के मुर्दाघर के बाहर रोते-बिलखते लोगों की तस्वीरें कैद कीं, तो मैं अपने आँसुओं को रोक नहीं सका। बतौर कैमरामैन 20 साल के अनुभव में मैंने तमिलनाडु की तमाम राजनीतिक पार्टियों की रैलियाँ और अभियान कवर किए हैं। मैंने उत्साही भीड़, लंबे रोडशो और जुनूनी समर्थक देखे हैं। कई बार हमें चुनावी वैन से लटककर भी भीड़ को कवर करना पड़ा। लेकिन मुझे कभी भी वैसी बेचैनी नहीं हुई, जैसी पहली टीवीके कॉन्फ्रेंस (विल्लुपुरम) से ही महसूस हो रही थी।
बेचैनी की शुरुआत
अक्टूबर 2024 में विकिरावंडी (विल्लुपुरम) में पहली राज्य स्तरीय कॉन्फ्रेंस से ही मुझे बुरा अहसास था—बच्चों को विशाल भीड़ में धकेला जा रहा था। हर कार्यक्रम में साफ दिखा कि टीवीके आयोजक भीड़ संभाल नहीं पा रहे थे। लोग डिहाइड्रेशन से गिर रहे थे, बच्चे थके और चकराए हुए लग रहे थे। मैंने कैमरे में उनके क्लोज़-अप कैद किए थे। आज भी आँखें बंद करता हूँ, तो वे थकी आँखें सामने आ जाती हैं।
टीवीके समर्थक कम, विजय फैन अधिक
करूर में 40 मौतें—जिनमें कई बच्चे भी थे—ने मुझे अंदर तक हिला दिया है। यह सिर्फ करूर की बात नहीं है, हर टीवीके कार्यक्रम में महिलाएँ-बच्चे धूप में बेहोश होते दिखे। कई माताएँ कहतीं—“विजय भाई हैं, मामा हैं, इसलिए आए हैं।”
मेरे कैमरे के सामने ये महज़ पार्टी मीटिंग नहीं, बल्कि त्रासदी बन गई। लोग अपने परिवारों के साथ आते—गोद में बच्चे, युवतियाँ घंटों सिर्फ विजय की झलक पाने या सेल्फी लेने खड़ी रहतीं। पानी और प्राथमिक उपचार कहीं नहीं। यह “टीवीके फैमिली मीटिंग” कहने लायक नहीं रहा, बल्कि लोगों की अंधभक्ति ने त्रासदी को और भी दर्दनाक बना दिया।
हाल से बेहाल
विकिरावंडी और मदुरै की दो राज्य स्तरीय कॉन्फ्रेंस में तो अराजकता हद से बढ़ गई थी। तभी से मैंने अपने साथ पानी की बोतल रखना शुरू कर दिया था, लेकिन उन्हें भीड़ में बेहोश होते लोगों को देना पड़ा। पाइप तो दिखते थे, पर पानी नहीं। मेरी महिला सहयोगियों ने बताया कि “पिंक रूम” बने थे, मगर वॉशरूम बिल्कुल बेकार थे।
त्रिची की पहली चुनावी रैली में भीड़ इतनी थी कि मैं खुद भी बेहोश होकर गिर पड़ा। 20 मिनट लगे पानी तक पहुँचने में, और 30 मिनट मेडिकल मदद के लिए। विजय पाँच घंटे देरी से पहुँचे, पर चारों ओर का हंगामा उन्हें भनक तक नहीं हुआ। नागपट्टिनम और नामक्कल की रैलियों में हालात और बिगड़े—तंग गलियाँ ठसाठस, लोग छतों पर, बिजली के खंभों से लटकते, दीवारें तोड़ते और हर इंच जगह पर कब्जा करते दिखे।
अराजकता और कुप्रबंधन का पैटर्न
हर कार्यक्रम में एक पैटर्न साफ था: बैरिकेड्स टूटना, लोग मंच की ओर दौड़ना, लड़कियों और लड़कों को धक्कों में जूझते देखना।
मीडिया के लिए बने एनक्लोज़र तक भी भीड़ ने कब्जा कर लिया था। महिलाएँ गर्मी में बेहोश हो रही थीं, पत्रकारों को भी धक्का दिया जा रहा था। पुलिस या आयोजकों की ओर से कोई चेतावनी नहीं। पूरा दिन भीड़ पीड़ित रही।
हर रैली के बाद हालात एक जैसे दिखे—टूटे बैरिकेड्स, बिखरे सामान, थके-हारे और घायल विजय फैन। जैसे-जैसे हालात बिगड़े, करूर में आखिरकार यह विस्फोट हो गया। लोग भीड़ में कुचल गए, बच्चे ठेलागाड़ियों में फँस गए, परिवार एक-दूसरे के ऊपर दब गए।
करूर कोई “दुर्घटना” नहीं थी
खुद मैंने भूख-प्यास झेली, अपनी सुरक्षा को लेकर डर भी महसूस किया। लेकिन जिन जिंदगियों को बुनियादी सुरक्षा उपायों की अनदेखी ने छीन लिया—वह अनुभव मुझे आज भी सता रहा है। वे मासूम चेहरे, जो पिछली रैलियों में उम्मीद से भरे दिखे थे, अब लाशों में बदल गए। मैंने कैमरे से जितना हो सका फिल्माया, लेकिन जो दर्द, लाचारी और डर था, उसे कोई लेंस नहीं पकड़ सकता।
माँओं की गोद में बेसुध बच्चे, परिजन अपने प्रियजनों को धक्कों से निकालने की जद्दोजहद करते हुए, और ज़मीन का युद्धक्षेत्र जैसा दृश्य—ये सब मुझे जीवनभर डराएँगे।
करूर की त्रासदी कोई हादसा नहीं थी। यह पाँच कार्यक्रमों में बार-बार हुई असफलताओं की अनदेखी का दुखद परिणाम था।