कौन हैं मतुआ समुदाय? जिनके नाम पर PM मोदी ने ममता सरकार पर साधा निशाना
प्रधानमंत्री मोदी ने रैली में ममता बनर्जी की सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि हर मतुआ और नामसुद्र परिवार की सेवा करना उनकी सरकार की जिम्मेदारी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मतुआ समुदाय का ज़िक्र करके पश्चिम बंगाल के चुनावी माहौल को और ज़्यादा चर्चा में ला दिया है। उन्होंने बंगाल के नदिया ज़िले के राणाघाट इलाके में एक बड़ी जनसभा को संबोधित किया। यह इलाका मतुआ समुदाय के प्रभाव वाला क्षेत्र माना जाता है। मतुआ समुदाय के ज़्यादातर लोग बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थी हैं। हाल ही में जब एसआईआर की ड्राफ्ट वोटर लिस्ट जारी हुई तो इस समुदाय के लोगों को अपने वोटिंग अधिकार खोने का डर सताने लगा। जिस जगह पर प्रधानमंत्री ने रैली की, वह मतुआ समुदाय के गढ़ माने जाने वाले बोंगांव के पास ही थी।
पीएम मोदी का हमला
प्रधानमंत्री मोदी ने रैली में ममता बनर्जी की सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि हर मतुआ और नामसुद्र परिवार की सेवा करना उनकी सरकार की जिम्मेदारी है। उन्होंने कहा कि मतुआ समुदाय को तृणमूल कांग्रेस (TMC) की दया पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। पीएम मोदी ने यह भी कहा कि नागरिकता संशोधन कानून (CAA) की वजह से मतुआ समुदाय को भारत में सम्मान के साथ रहने का अधिकार मिला है। उन्होंने भरोसा दिलाया कि अगर पश्चिम बंगाल में भाजपा की सरकार बनती है, तो मतुआ और नामसुद्र समुदाय के लिए और भी काम किए जाएंगे।
धार्मिक नेताओं और संतों का सम्मान
प्रधानमंत्री ने अपने डिजिटल संबोधन में मतुआ संप्रदाय के संस्थापक हरिचंद ठाकुर और गुरुचंद ठाकुर का ज़िक्र किया और उनके योगदान की सराहना की। उन्होंने 15वीं सदी के बंगाली संत निताई (नित्यानंद प्रभु) को याद करते हुए “जय निताई” का नारा लगाया। साथ ही संत चैतन्य महाप्रभु के योगदान को भी याद किया। मतुआ समुदाय इन दोनों संतों को बहुत मानता है।
आखिर कौन हैं मतुआ समुदाय?
अब सवाल उठता है कि मतुआ समुदाय कौन है, जिसका ज़िक्र प्रधानमंत्री ने खास तौर पर किया। मतुआ समुदाय का इतिहास 200 साल से ज़्यादा पुराना है। इसकी स्थापना हरिचंद ठाकुर ने की थी। यह समुदाय शुरू से ही सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों से जुड़ा रहा है। आज़ादी के बाद प्रमथ रंजन ठाकुर, फिर उनकी पत्नी बीणापाणि देवी और आज उनके बेटे और पोते—यह परिवार बंगाल की राजनीति में लगातार अहम भूमिका निभाता रहा है।
मतुआ समुदाय की अहमियत
चुनाव आते ही पश्चिम बंगाल में जाति आधारित राजनीति तेज़ हो जाती है। इसमें अनुसूचित जाति से आने वाला मतुआ समुदाय सबसे अहम माना जाता है। बताया जाता है कि बंगाल में इस समुदाय की आबादी तीन करोड़ से ज़्यादा है और करीब 70 विधानसभा सीटों पर इसका सीधा असर पड़ता है। ये सीटें उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, नदिया, मालदा और आसपास के इलाकों में हैं। लोकसभा स्तर पर देखें तो बंगाल की 42 सीटों में से 10 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इनमें से 5 सीटें जीतीं, जो 2019 से एक ज़्यादा थीं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण CAA को माना गया।
बीजेपी की रणनीति
मतुआ समुदाय, नामसुद्र समाज का ही हिस्सा है। पहले इन्हें ‘चांडाल’ जैसे अपमानजनक शब्दों से बुलाया जाता था। 19वीं सदी में इनके सामाजिक उत्थान की शुरुआत हुई और आज़ादी के बाद स्थिति में काफी सुधार आया। विभाजन के बाद भी इस बड़े समुदाय को लंबे समय तक शरणार्थी के रूप में देखा गया। इस समुदाय की लगभग पूरी आबादी हिंदू है। इसी धार्मिक और सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने मतुआ समुदाय को अपने समर्थन में लाने की रणनीति बनाई।
इस समुदाय की सबसे बड़ी मांग नागरिकता की रही है। भाजपा ने CAA लाकर इस मांग को पूरा करने की कोशिश की। इसे वोट बैंक की राजनीति में भाजपा का बड़ा कदम माना गया। CAA को एनआरसी से पैदा हुए डर को कम करने के प्रयास के रूप में भी देखा गया।
ममता बनर्जी की राजनीति
जहां भाजपा ने CAA के ज़रिए मतुआ समुदाय को साधने की कोशिश की, वहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे नुकसानदेह बताया। उन्होंने असम में लागू एनआरसी का उदाहरण देकर कहा कि ऐसे कानून समुदाय के लिए खतरा बन सकते हैं। ममता बनर्जी ने सिर्फ बयान ही नहीं दिए, बल्कि ज़मीनी स्तर पर भी कदम उठाए। उनकी सरकार ने अनुसूचित जाति और शरणार्थी समुदायों को ज़मीन के अधिकार दिए। ममता सरकार ने मतुआ समुदाय को “प्राकृतिक नागरिक” बताया और राज्य में सवा लाख से ज़्यादा भूमि पट्टे बांटे। इसके अलावा, मतुआ समुदाय की आध्यात्मिक नेता बोरो मां के साथ ममता बनर्जी के रिश्ते काफी पुराने हैं। बोरो मां ने उन्हें मतुआ महासंघ का प्रमुख संरक्षक भी घोषित किया था, जिससे इस समुदाय में ममता की पकड़ और मज़बूत हुई।