यूपी में अब नेजा और जेठ मेला की चर्चा, सुहेलदेव-सालार मसूद से क्या है नाता?

यूपी के बाहर शायद ही किसी ने नेजा और जेठ मेला के बारे में सुना होगा। संभल में नेजा मेला को जब प्रशासन ने इजाजत नहीं दी तो लोगों में दिलचस्पी बढ़ी कि भला यह मुद्दा क्या है।;

By :  Lalit Rai
Update: 2025-03-21 10:51 GMT
गाजी सैय्यद सालार मसूद और राजा सुहेलदेव का 11वीं सदी से नाता (फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया)

Neja Jeth Mela Controversy: पन्नों में दर्ज घटनाएं जब भविष्य में मुद्दा बनने लगते हैं तो तर्क के जरिए हर पक्ष अपने आपको सही साबित करने में जुट जाता है। आप सोच रहे होंगे वो इतिहास क्या था और वर्तमान में बहस का दौर क्यों जारी है। दरअसल यूपी में संभल जिला प्रशासन ने बरसों से चले आ रहे नेजा मेले पर रोक लगा तो दी उसकी गूंज यूपी के एक और जिले श्रावस्ती में होने लगी। भौगोलिक तौर पर संभल और श्रावस्ती के बीच की दूरी करीब 550 किमी है। लेकिन एक किरदार गाजी सैय्यद सालार मसूद ऐसा था जिसका नाता दोनों जगहों से है। सैय्यद सालार की याद में संभल में नेजा और श्रावस्ती में जेठ मेला लगता है। अब आप सोच रहे होंगे कि नेजा और जेठ मेला की चर्चा क्यों होने लगी। 

महाराष्ट्र में मुगल शासक औरंगजेब की कब्र को लेकर विवाद के बीच, उत्तर प्रदेश में भी इतिहास के एक किरदार को लेकर विवाद शुरू हो गया है। संभल प्रशासन ने नेजा मेले पर रोक लगा दी है। यह मेला सैयद सालार मसूद गाजी की याद में आयोजित होता था।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

1034 ईस्वी में,यूपी के बहराइच जिले की चित्तौरा झील के किनारे, महाराजा सुहेलदेव ने 21 अन्य छोटे-छोटे राजाओं के साथ मिलकर गाजी सैयद सालार मसूद को एक युद्ध में परास्त किया और मार डाला। महाराजा सुहेलदेव ने मसूद के शव को बहराइच में ही दफना दिया था। सैयद सालार मसूद महमूद गजनवी का भांजा और सेनापति था।

नेजा मेला और प्रशासनिक रोक

संभल में आयोजित होने वाला नेजा मेला, सैयद सालार मसूद गाजी की याद में लगाया जाता था। इस बार प्रशासन ने इस मेले पर रोक लगा दी है। इस मेले का नाम "नेजा" इसलिए पड़ा क्योंकि इसमें एक ऊंचे बांस या लकड़ी के डंडे (नेजा) को सजाकर उसकी इबादत की जाती थी। इसे मसूद की कब्र से जुड़ा प्रतीक माना जाता था।

जेठ मेला और विवाद

हर साल मई-जून में बहराइच में सैयद सालार मसूद गाजी की दरगाह पर "जेठ मेला" या "गाजी मियां का मेला" आयोजित होता है। अब हिंदू संगठनों ने इस मेले पर भी रोक लगाने की मांग की है। इसके समानांतर, महाराजा सुहेलदेव की याद में "विजयोत्सव दिवस" भी मनाया जाता है, जो उनकी सालार मसूद पर विजय की याद में आयोजित किया जाता है।

इतिहास और मतभेद

नेजा मेला और जेठ मेला दोनों ही सालार मसूद और महाराजा सुहेलदेव से जुड़े हैं, लेकिन इन पर ऐतिहासिक और धार्मिक आधार पर सवाल उठाए जा रहे हैं। एक पक्ष इन्हें सूफी परंपरा का हिस्सा मानता है, वहीं दूसरा पक्ष इन्हें विदेशी आक्रमण से जोड़ता है।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बयान

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सैयद सालार मसूद का नाम लिए बिना कहा कि भारत की सनातन संस्कृति का गुणगान पूरी दुनिया कर रही है, और किसी भी आक्रांता का महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत अब आक्रांताओं का महिमामंडन बर्दाश्त नहीं करेगा और ऐसा करना देशद्रोह के समान है।

कौन थे महाराजा सुहेलदेव

महाराजा सुहेलदेव श्रावस्ती के एक शक्तिशाली राजा थे, जिनका शासन बहराइच और आसपास के क्षेत्रों में फैला हुआ था। उन्हें महमूद गजनवी की सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ने के लिए जाना जाता है। जब गजनवी ने सोमनाथ मंदिर को नष्ट किया, तो सुहेलदेव ने विभिन्न समुदायों और छोटे राजाओं को एकजुट किया और बहराइच में सालार मसूद को हराकर मार डाला।

ऐतिहासिक स्रोत और सुहेलदेव की रणनीति

महाराजा सुहेलदेव का उल्लेख 17वीं शताब्दी के फारसी ग्रंथ ‘मिरात-ए-मसूदी’ में मिलता है, जहां उन्हें एक कुशल योद्धा बताया गया है। उनकी सेना ने सालार मसूद की विशाल और सुसज्जित सेना को हराने में सफलता प्राप्त की थी। कहा जाता है कि इस गठबंधन में बहराइच, श्रावस्ती, लखीमपुर, सीतापुर, लखनऊ और बाराबंकी के 21 राजा शामिल थे। राजभर और पासी समुदाय के लोग खुद को महाराजा सुहेलदेव का वंशज मानते हैं।

सैयद सालार मसूद की कहानी

सैयद सालार मसूद गाजी को महमूद गजनवी का भांजा बताया जाता है। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, उनका जन्म अजमेर में हुआ था और वे महमूद गजनवी की सेना के सेनापति थे। 1033 ईस्वी में, वे अपनी सेना के साथ बहराइच पहुंचे, जहां 1034 में उनकी टक्कर महाराजा सुहेलदेव से हुई। कुछ कथाओं में उन्हें एक आक्रमणकारी बताया गया है, जिसने मंदिरों को नष्ट किया और स्थानीय लोगों पर अत्याचार किए, जबकि अन्य कथाओं में उन्हें एक सूफी संत के रूप में देखा गया है।

सालार मसूद की कब्र और मजार

बहराइच में पराजय के बाद, सालार मसूद को वहीं दफना दिया गया। उनके अनुयायियों ने उनकी कब्र बनाई, जो बाद में एक मजार में परिवर्तित हो गई। आज यह स्थान "गाजी मियां की दरगाह" के नाम से जाना जाता है, जहां हर साल मई में मेला लगता है, जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग शामिल होते हैं।

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