भाषा विवाद : क्षेत्रीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की पहल कर चुका है दक्षिण
तमिलनाडु, कर्नाटक और तेलुगु राज्यों ने अपनी-अपनी स्थानीय भाषाओं में तकनीकी ज्ञान उपलब्ध कराने की कोशिश की है; जानिए क्या हुआ;
भाषा को लेकर चल रही मौजूदा लड़ाई के बीच केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भले ही यह सोचा हो कि उन्होंने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को तमिल में इंजीनियरिंग और मेडिकल की शिक्षा देने के लिए कहकर चुनौती दे दी है। लेकिन हकीकत ये है कि तमिलनाडु ही नहीं, कर्नाटक और दो तेलुगु राज्यों का इतिहास रहा है कि वे स्थानीय भाषाओं में तकनीकी ज्ञान देने की कोशिश करते रहे हैं। यह अलग बात है कि उन्हें इसमें कभी सफलता नहीं मिली।
तमिलनाडु का विफल प्रयोग
इस बात को लगभग पंद्रह साल हो गए हैं जब तमिलनाडु में इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों के लिए तमिल माध्यम को अपनाया गया। साल 2010 में, मौजूदा मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के पिता और तत्कालीन मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में तमिल को शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने की शुरुआत की थी।
प्रतिष्ठित अन्ना विश्वविद्यालय से संबद्ध कॉलेजों में शैक्षणिक वर्ष 2010-11 के लिए दो पाठ्यक्रम - सिविल में इंजीनियरिंग स्नातक और मैकेनिकल में इंजीनियरिंग स्नातक - शुरू किए गए थे। सरकार ने तब यह भी घोषणा की थी कि तमिल भाषा से अपने पेशेवर डिग्री पाठ्यक्रम को पूरा करने वाले छात्रों के लिए सरकारी नौकरियों में 20 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा।
लगभग डेढ़ सौ छात्र ऐसे थे, जिन्होंने तब तमिल माध्यम से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले पाठ्यक्रमों में प्रवेश लिया और तमिल भाषा में परीक्षा भी दी। हालांकि, कुछ ही वर्षों के भीतर ऐसे छात्रों की संख्या कम हो गई। तमिल माध्यम से इंजीनियरिंग की डिग्री लेने वाले कुछ ही छात्रों को रोजगार का मौका मिल पाया।
वो विभाग जो आज भी कागजों में है
सूत्रों ने बताया कि इन पाठ्यक्रमों को लेकर अच्छी प्रतिक्रिया न मिलती देखकर तमिलनाडु सरकार ने इन इंजीनियरिंग कार्यक्रमों के लिए आवंटित धनराशि कम कर दी और आखिरकार इन विभागों में नई भर्तियां रोक दीं। नाम न बताने की शर्त पर अन्ना विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ प्रोफेसर, जोकि तमिल पाठ्यक्रमों के लिए पाठ्यक्रम और शब्दावली को डिजाइन करने में पूरी लगन से लगे हुए थे, ने इस प्रक्रिया में की गई कड़ी मेहनत को याद किया।
उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, "हमने तमिल-माध्यम से इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों के लिए आवश्यक शब्दावली और शब्दकोश विकसित करने के लिए कई महीने लगाए और महत्वपूर्ण प्रयास किए। लेकिन हमें जल्द ही एहसास हुआ कि तमिल मीडियम वाले छात्र असली इंजीनियरिंग की दुनिया में भाषा का प्रभावी ढंग से उपयोग नहीं कर सकते, जहां उन्हें अंग्रेजी में महारत हासिल करने की आवश्यकता थी।"
उन्होंने कहा, "शुरू में, स्कूल में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई करने वाले कई छात्रों ने बड़ी उम्मीदों के साथ तमिल मीडियम वाले इंजीनियरिंग कोर्स में दाखिला लिया। लेकिन यह कारगर नहीं हुआ। आज भी, विभाग केवल नाम के लिए ही मौजूद है।"
कर्नाटक की दोहरी नाकामी
कर्नाटक का अनुभव भी कुछ ऐसा ही रहा है।
कन्नड़ माध्यम में विज्ञान विषयों को पढ़ाने की शुरुआत 1970 के दशक में ही हो गई थी, जब कर्नाटक के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक मैसूर विश्वविद्यालय ने कन्नड़ माध्यम में बीएससी पाठ्यक्रम शुरू किया था। शुरुआत में, कुछ छात्रों ने दिलचस्पी दिखाई, लेकिन पढ़ने और सीखने में चुनौतियों के कारण यह पहल पहले बैच के साथ ही समाप्त हो गई।
विश्वविद्यालय के प्रकाशन विभाग के पूर्व उप निदेशक सुदर्शन एसआर ने इस बात की पुष्टि की कि जब यह स्पष्ट हो गया कि यह पहल व्यावहारिक नहीं थी, तो इसे बंद कर दिया गया।
कन्नड़ में इंजीनियरिंग से दूरी
इसके बावजूद, कर्नाटक ने हाल ही में पांच साल पहले कन्नड़ माध्यम में इंजीनियरिंग पढ़ाने की एक नई पहल की। हालांकि, अभी तक एक भी छात्र कन्नड़-माध्यम सिविल और मैकेनिकल इंजीनियरिंग डिग्री पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने नहीं आया।
कन्नड़ में सिविल और मैकेनिकल इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम शुरू करने के प्रयास 2021 में शुरू हुए, जब अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE) ने क्षेत्रीय भाषाओं में इंजीनियरिंग शिक्षा की मंजूरी दी।
2021-22 शैक्षणिक वर्ष में, कर्नाटक के पांच निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों ने कन्नड़ भाषा में BE पाठ्यक्रम पेश करने का फैसला किया। हालांकि कुछ छात्रों ने शुरू में CET काउंसलिंग के दौरान इन कॉलेजों का चयन किया था, लेकिन बाद में उन्होंने अपना मन बदल लिया और कभी प्रवेश नहीं लिया।
कन्नड़ में इंजीनियरिंग का अभी भी मौका
2022-23 में, AICTE ने चिक्काबल्लापुर में SJC इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और भालकी में भीमन्ना खंड्रे इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी को कन्नड़ में भी इंजीनियरिंग शिक्षा देने की मंजूरी दी।
SJC में केवल एक ही छात्र ने कन्नड़-मीडियम के पाठ्यक्रम को चुना, लेकिन उसने फीस का भुगतान करके प्रवेश प्रक्रिया पूरी नहीं की। इसी तरह, मैसूरु में महाराजा इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (MIT) में एक छात्र ने शुरू में दाखिला लिया, लेकिन बाद में उसने दूसरे पाठ्यक्रम में दाखिला ले लिया।
पिछले साल भी, एक छात्र ने कन्नड़ में मैकेनिकल इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम के लिए पंजीकरण किया था, लेकिन बाद में पीछे हट गया। ये तीनों संस्थान दावा कर रहे हैं कि वो कन्नड़-माध्यम से इंजीनियरिंग अभी भी जारी रखे हुए हैं, लेकिन बहुत कम परिणाम देते हैं।
प्रतियोगी दुनिया के लिए ‘उपयुक्त नहीं’
शिवमोग्गा विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. डीएस पूर्णानंद ने कहा, "मातृभाषा में मेडिकल या इंजीनियरिंग की पढ़ाई करना प्रतिस्पर्धी दुनिया के लिए उपयुक्त नहीं है। जब नौकरी के अवसरों की बात आती है, तो छात्रों को पूरे देश के उम्मीदवारों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी होती है। इसलिए, करियर के नजरिए से, छात्र अपनी मातृभाषा में पेशेवर पाठ्यक्रम करने में संकोच करते हैं। भाषा को केवल संचार तक ही सीमित रखना चाहिए। अमित शाह की चुनौती गैर-जरूरी थी।"
कन्नड़ मीडियम से इंजीनियरिंग के लिए छात्रों को लुभाने के लिए, कन्नड़ विकास प्राधिकरण (KDA) ने राज्य सरकार और निजी संस्थानों को सुझाव दिया था कि कन्नड़ माध्यम से छात्रों के लिए नौकरी में आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। हालांकि, इस मामले में बहुत कम प्रगति हुई है।
कर्नाटक ने कभी भी कन्नड़ में मेडिकल शिक्षा शुरू करने का प्रयास नहीं किया। हालांकि, एक उच्च शिक्षा समिति ने स्थानीय संचार की सुविधा के लिए मेडिकल छात्रों के लिए कन्नड़ को अनिवार्य भाषा बना दिया था।
निजाम का दौर और तेलुगु राज्यों में उर्दू शिक्षा
जहां तक शिक्षा के माध्यम के रूप में क्षेत्रीय भाषा का उपयोग करने का सवाल है, तो तेलंगाना का इतिहास इस मामले में काफी दिलचस्प है। 1918 में स्थापित हैदराबाद का उस्मानिया विश्वविद्यालय भारत का पहला स्थानीय भाषा-माध्यम विश्वविद्यालय था, जहां शिक्षा का माध्यम उर्दू था।
यहां तक कि नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने भी निज़ाम VII, मीर उस्मान अली खान की प्रशंसा की थी, जिन्होंने एक ऐसा विश्वविद्यालय स्थापित करने का प्रयास किया था, जहां शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषा थी।
1950 में ये विश्वविद्यालय उर्दू से अंग्रेजी मीडियम में परिवर्तित हो गया। उर्दू माध्यम में यहां अंतिम परीक्षा 1951 में आयोजित की गई थी। हालांकि, 1918 से 1951 तक, यहां तक कि मेडिकल और इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम भी उर्दू में पढ़ाए जाते थे।
अंग्रेजी और अनौपचारिक रूप से तेलुगु में शिफ्ट
उस्मानिया विश्वविद्यालय के पूर्व संकाय सदस्य प्रो. करली श्रीनिवासुलु के अनुसार, निज़ाम VII ने सभी विषयों की पुस्तकों का अंग्रेजी से उर्दू में अनुवाद करवाने में बहुत दिलचस्पी दिखाई। उन्होंने कहा, "विश्वविद्यालय ने सभी पाठ्यपुस्तकों को उर्दू में उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 2 करोड़ रुपये के सालाना व्यय के साथ एक अनुवाद विभाग भी स्थापित किया।"
हालांकि 1950 के दशक में उर्दू से अंग्रेजी में परिवर्तन सफलतापूर्वक हुआ था, लेकिन छात्रों को 1999 तक तेलुगु में अपनी परीक्षाएं लिखने की अनुमति थी। प्रो. करली ने कहा, "चूंकि विश्वविद्यालय के कई छात्र ग्रामीण पृष्ठभूमि से थे, जहाँ अंग्रेजी में पढ़ाई मौजूद नहीं थी, इसलिए छात्रों को तेलुगु में परीक्षाएं देने का मौका दिया गया।"
उन्होंने कहा, "यह अनौपचारिक व्यवस्था 1999 तक जारी रही, जब प्रो. डीसी रेड्डी को कुलपति नियुक्त किया गया। उन्होंने विश्वविद्यालय स्तर पर अंग्रेजी माध्यम को अनिवार्य बना दिया।"
तेलुगू में सिर्फ दो विषय
वारंगल में काकतीय विश्वविद्यालय की कहानी थोड़ी अलग है। अर्थशास्त्र में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. थिरुमति सेशु ने 'द फेडरल' को बताया, "छात्र तेलुगु में परीक्षा दे सकते हैं, हालांकि पढ़ाई अंग्रेजी में होती है।" यह सुविधा भी केवल केवल मानविकी और सामाजिक विज्ञान के छात्रों के लिए है। आंध्र प्रदेश में भी कमोबेश यही व्यवस्था अपनाई जाती है।
तिरुपति जिले के कुप्पम में द्रविड़ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. के.एस. चालम ने कहा, "1990 से, कुछ विश्वविद्यालय छात्रों, जिनमें से अधिकांश मानविकी और सामाजिक विज्ञान के हैं, को तेलुगु में परीक्षा लिखने की अनुमति देते हैं।"
(तमिलनाडु में प्रमिला कृष्णन, कर्नाटक में सुखेशा पी और तेलंगाना में जिंका नागराजू के इनपुट के साथ)