DU का अजब कारनामा, प्रवेश फॉर्म में मातृभाषा के विकल्प में 'उर्दू' के बजाय लिखा 'मुस्लिम'
प्रोफेसरों का कहना है कि यह सांप्रदायिक मानसिकता को दर्शाता है; वहीं DU के अधिकारी इस बात से 'अनजान' हैं कि यह गलती सिस्टम में कैसे आ गई;
दिल्ली विश्वविद्यालय (DU) का अंडरग्रेजुएट रजिस्ट्रेशन पोर्टल गुरुवार (19 जून) को लाइव हुआ। इसें एक गंभीर गड़बड़ी सामने आई। ‘मदर टंग’ यानी मातृभाषा के विकल्पों में 'मुस्लिम' को भाषा के रूप में सूचीबद्ध किया गया था, जबकि 'उर्दू' पूरी तरह से गायब थी।
इस गड़बड़ी को रिपोर्ट होने के बाद ठीक कर दिया गया, लेकिन अधिकारियों का कहना है कि उन्हें कोई जानकारी नहीं है कि यह 'गलती' कैसे हो गई। डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट (DTF) की सचिव आभा देव हबीब ने इस गड़बड़ी की ओर सबसे पहले ध्यान दिलाया।
उन्होंने कहा, "डीयू का अंडरग्रेजुएट एडमिशन फॉर्म इससे ज्यादा इस्लामोफोबिक नहीं हो सकता था। मातृभाषा के तहत 'उर्दू' को पूरी तरह से हटा दिया गया, जबकि 'मुस्लिम' को एक भाषा के रूप में जोड़ा गया। क्या डीयू को यह समझ नहीं है कि मुसलमान अपने क्षेत्रों की अन्य भाषाएं भी बोलते हैं? जबकि उर्दू भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता प्राप्त भाषा है, फिर भी इसे नजरअंदाज किया गया। यह सीधा सांप्रदायिक मानसिकता को दर्शाता है।"
डीयू की कार्यकारी परिषद (EC) के सदस्य मिथुराज धूसिया ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया और कहा, "यह बहुत ही दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक शीर्ष केंद्रीय विश्वविद्यालय ऐसी गलती करता है। इसे तुरंत ठीक किया जाना चाहिए। हमें अपने देश की विविधता और बहुभाषिकता का सम्मान करना चाहिए।"
अंग्रेज़ी के एसोसिएट प्रोफेसर और डीयू टीचर्स एसोसिएशन (DUTA) के कार्यकारी सदस्य रूद्राशीष चक्रवर्ती ने कहा कि यह उर्दू को जानबूझकर निशाना बनाना है और यह डीयू की सांप्रदायिक सोच का हिस्सा है।
चक्रवर्ती ने कहा, "यह सिर्फ एक भाषा को हाशिये पर डालने की कोशिश नहीं है, बल्कि उर्दू जैसी भाषा और साहित्य के माध्यम से भारत की मिली-जुली संस्कृति के ताने-बाने को मिटाने की कोशिश है। यह बताने की कोशिश की जा रही है कि मुसलमान देश की अन्य भाषाएँ नहीं बोलते, और गैर-मुस्लिम उर्दू नहीं बोलते! यह देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को ‘अन्य’ के रूप में पेश करने की बेशर्म कोशिश है।"
जब डीयू के डीन ऑफ एडमिशन्स, हनीत गांधी से संपर्क किया गया तो उन्होंने संभावित चूक बताया और कहा, "हमें तो पता ही नहीं था कि ऐसा हुआ है। जैसे ही हमें जानकारी मिली, हमने तुरंत 'मुस्लिम' को हटा दिया और 'उर्दू' को जोड़ दिया। हमें वाकई नहीं मालूम कि ये कैसे हुआ। इतनी सारी भाषाएं होती हैं, शायद कोई गलती हो गई।"
यह मामला न केवल प्रशासनिक लापरवाही का उदाहरण है बल्कि देश के शैक्षणिक संस्थानों में सांस्कृतिक और भाषायी संवेदनशीलता की गंभीर कमी को भी उजागर करता है।