RTI से खुलासा: राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 पर केंद्र की ‘ऊपर से नीचे’ वाली नीति, राज्यों की चिंताओं को नज़रअंदाज़ किया
विस्तृत परामर्श और लचीलापन के दावों के बावजूद, The Federal की RTI जांच में सामने आया कि केंद्र ने राज्यों की राय को नज़रअंदाज़ करते हुए एनईपी को अपने नियंत्रण में आगे बढ़ाया।
29 जुलाई 2020 को जब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) को मंजूरी दी, तब तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री (बाद में शिक्षा मंत्री) रमेश पोखरियाल ने कहा था कि यह नीति “अब तक की सबसे बड़ी परामर्श और विचार-विमर्श प्रक्रिया” के बाद तैयार की गई है।
अगस्त 2023 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी कहा कि एनईपी “लचीली” है और “केंद्र द्वारा राज्यों पर थोपी नहीं गई” है — बल्कि राज्य “अपनी ज़रूरतों के अनुसार इसे अपनाने के लिए स्वतंत्र” हैं।
इन दावों के बावजूद, RTI के तहत The Federal द्वारा प्राप्त दस्तावेज़ एक अलग तस्वीर पेश करते हैं। वे दर्शाते हैं कि शिक्षा मंत्रालय ने एनईपी को ‘टॉप-डाउन’ यानी ऊपर से नीचे के तरीके से लागू किया — जिससे भारत में शिक्षा शासन के संघीय ढांचे (federal character) पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं।
राज्यों की चिंताएं
सितंबर 2020 में ही, कई राज्यों के प्रतिनिधियों ने एनईपी के क्रियान्वयन को लेकर अपनी चिंताएं जताई थीं। यह बैठक तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता में हुई थी, जिसमें राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों ने हिस्सा लिया था।
हालांकि, RTI से मिले दस्तावेज़, जिनमें मंत्रालय और राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के बीच एनईपी से जुड़ी पूरी पत्राचार जानकारी शामिल होनी चाहिए थी, यह नहीं दिखाते कि इन चिंताओं पर कभी कोई प्रतिक्रिया या कार्रवाई हुई भी या नहीं।
केंद्र की ओर से निगरानी का रवैया
2023-24 में आयोजित कई “जोनल कंसल्टेशन-कम-रिव्यू मीटिंग्स” (क्षेत्रीय परामर्श-समीक्षा बैठकों) के मिनट्स से पता चलता है कि ये बैठकें ज्यादातर राज्यों के प्रदर्शन और लक्ष्यों की समीक्षा तक सीमित रहीं।
इन बैठकों में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से कहा गया कि वे केंद्र द्वारा तय किए गए लक्ष्यों के अनुसार अपनी उपलब्धियां प्रस्तुत करें — यानी ये बैठकें नीतिगत संवाद या स्थानीय अनुकूलन के बजाय केंद्र के दिशा-निर्देशों के अनुपालन की समीक्षा मंच बन गईं।
शुरुआती आपत्तियाँ
RTI दस्तावेजों के अनुसार, “गवर्नर्स कॉन्फ्रेंस ऑन रोल ऑफ NEP 2020 इन ट्रांसफॉर्मिंग हायर एजुकेशन” नामक सम्मेलन 7 सितंबर 2020 को आयोजित हुआ था। इस बैठक की अध्यक्षता राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने की थी और इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रमेश पोखरियाल तथा कई अन्य वरिष्ठ अधिकारी शामिल हुए थे।
दस्तावेज़ों से खुलासा: कई राज्यों ने एनईपी पर जताई थी आपत्तियाँ और चिंताएँ
आरटीआई से मिले दस्तावेज़ बताते हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 को लेकर देशभर के कई राज्यों और राज्यपालों ने गंभीर आपत्तियाँ और सुझाव दिए थे।
मेघालय के तत्कालीन राज्यपाल स्व. सत्यपाल मलिक ने कहा था कि “राज्य को कई मोर्चों पर बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा” — जिनमें हर ज़िले में MERU (Multidisciplinary Education and Research University) की स्थापना, सकल नामांकन अनुपात (GER) बढ़ाना, मान्यता प्राप्त कॉलेजों की कम संख्या, रोज़गार के अवसरों की कमी, और राज्य स्तरीय नियामक संस्थाओं की आवश्यकता शामिल हैं।
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस बात पर ज़ोर दिया कि “राज्य, शिक्षक, छात्र, अभिभावक आदि सभी हितधारकों की भागीदारी आवश्यक है।”
राज्यों ने एनईपी पर क्या कहा
हेमंत सोरेन (मुख्यमंत्री, झारखंड): “केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय समन्वय और धन के उचित वितरण की व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि राज्य के पास शिक्षा के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं हैं।”
प्रमोद सावंत (मुख्यमंत्री, गोवा): “एक छोटा राज्य होने के नाते गोवा को एनईपी के क्रियान्वयन में वित्तीय असर के कारण दिक्कतें आ सकती हैं।”
के.टी. जलील (पूर्व शिक्षा मंत्री, केरल): “राज्य की कमजोर वित्तीय स्थिति एनईपी के क्रियान्वयन में बाधा डाल सकती है।”
पार्थ चटर्जी (पूर्व शिक्षा मंत्री, पश्चिम बंगाल): “राज्य को एनईपी 2020 की कुछ धाराओं जैसे कॉमन लैंग्वेज पॉलिसी, मल्टी-लेवल अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम्स, और एम.फिल. कोर्स समाप्त करने पर आपत्ति है।”
मनीष सिसोदिया (पूर्व शिक्षा मंत्री, दिल्ली): “दिल्ली को खास तौर पर ECCE (Early Childhood Care and Education) के क्रियान्वयन को लेकर आपत्तियाँ हैं।”
स्व. सत्यपाल मलिक (पूर्व राज्यपाल, मेघालय): “पूर्वोत्तर राज्यों को कई स्तरों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, जिनमें MERUs की स्थापना भी शामिल है।”
केंद्र का जवाब और बैठक के मिनट्स
बताया गया कि उस बैठक में रमेश पोखरियाल ने सभी प्रतिभागियों को यह आश्वासन दिया था कि नीति के क्रियान्वयन में “सभी के सुझावों और सिफारिशों को ध्यान में रखा जाएगा।”
हालाँकि, RTI के जवाब में ऐसे किसी फॉलो-अप संवाद या परामर्श का कोई रिकॉर्ड नहीं मिला।
दस्तावेज़ों के अनुसार, झारखंड के मुख्यमंत्री ने आगे कहा कि —“शिक्षा के निजीकरण पर निर्णय लेते समय राज्य और आदिवासी क्षेत्रों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखा जाना चाहिए… जिन भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया है, उनके विकास और प्रोत्साहन पर भी ध्यान दिया जाए… ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के निजीकरण से योग्य शिक्षकों की कमी हो सकती है, क्योंकि वे निजी संस्थानों को प्राथमिकता देंगे।”
गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने भी कहा कि “एक छोटा राज्य होने के नाते गोवा को एनईपी के क्रियान्वयन में वित्तीय दिक्कतें हो सकती हैं।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि “गोवा के अधिकांश शिक्षण संस्थान या तो राज्य सरकार के अधीन हैं या पूरी तरह सरकारी वित्तपोषित हैं, जिससे नीति लागू करने में अतिरिक्त चुनौतियाँ आएँगी।”
बैठक के मिनट्स में दर्ज है कि रमेश पोखरियाल ने सभी प्रतिभागियों को आश्वस्त किया कि “एनईपी के क्रियान्वयन में सभी के सुझावों और सिफारिशों को ध्यान में रखा जाएगा,” लेकिन उल्लेखनीय यह है कि उसके बाद किसी फॉलो-अप बैठक या संवाद का कोई रिकॉर्ड नहीं मिला।
संघीय ढांचे में असंतुलन
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की तरह, केरल और पश्चिम बंगाल के प्रतिनिधियों ने भी केंद्र और राज्यों के बीच अस्थिर होते संबंधों पर सवाल उठाए। आरटीआई के अनुसार, केरल के तत्कालीन उच्च शिक्षा मंत्री के. टी. जलील ने कहा कि राज्य की कमजोर वित्तीय क्षमता “शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में चुनौती बन सकती है।”
जलील ने यह भी उल्लेख किया कि एनईपी 2020 में हर ज़िले में एक उच्च शिक्षा संस्थान (HEI) स्थापित करने का प्रस्ताव है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इसके लिए आवश्यक संसाधन — जैसे धन, भूमि आदि — कैसे जुटाए जाएंगे। उन्होंने यह भी कहा कि नीति में आरक्षण और वित्तीय प्रावधानों का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
जलील ने आगे कहा कि मान्यता (accreditation) की व्यवस्था केंद्र स्तर पर प्रस्तावित की गई है, “जबकि ऐसी प्रणाली राज्यों के स्तर पर भी होनी चाहिए।”
बंगाल की चिंताएँ
पश्चिम बंगाल के पूर्व शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी ने कहा, “एनईपी 2020 की कुछ धाराओं — जैसे समान भाषा नीति, बहु-स्तरीय स्नातक कार्यक्रम, और एम.फिल पाठ्यक्रमों को समाप्त करने — को लेकर राज्य को आपत्तियाँ हैं।”
उन्होंने यह भी कहा कि उच्च शिक्षा प्रणाली के केंद्रीकरण और राष्ट्रीय स्तर पर परिषदों की स्थापना से राज्यों की भूमिका कमज़ोर हो जाएगी।
उन्होंने यह प्रश्न भी उठाया कि सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 6% खर्च शिक्षा नीति के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होगा या नहीं, और इस धन के बंटवारे को लेकर नीति में स्पष्टता नहीं है।
चटर्जी ने यह भी विरोध जताया कि बंगाली भाषा को “शास्त्रीय भाषाओं” की सूची में शामिल नहीं किया गया है और उन्होंने इस त्रुटि को सुधारने या संबंधित धारा को नीति से हटाने की मांग की।
दिल्ली की आपत्तियाँ
दिल्ली के पूर्व शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने भी अपनी चिंताएँ दर्ज कराईं, विशेष रूप से ECCE (Early Childhood Care and Education) के क्रियान्वयन को लेकर।
बैठक के मिनट्स में दर्ज है: “माननीय मंत्री ने कहा कि एनईपी में प्रस्तावित कार्यक्रम उपयुक्त नहीं है, क्योंकि अन्य देशों में इस स्तर के बच्चों के लिए प्रशिक्षित शिक्षक होते हैं, जबकि इस नीति में यह कार्य आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को सौंपा गया है।”
कोई फॉलो-अप बैठक नहीं हुई
बैठक के मिनट्स में यह दर्ज था कि रमेश पोखरियाल ने सभी प्रतिभागियों को आश्वासन दिया कि “नीति के क्रियान्वयन में सभी के सुझावों और सिफारिशों को ध्यान में रखा जाएगा।”
फिर भी, आरटीआई के जवाब में किसी फॉलो-अप बैठक या परामर्श का रिकॉर्ड नहीं मिला, जिसमें राज्यों की चिंताओं पर चर्चा की गई हो या फीडबैक के आधार पर नीति में संशोधन किया गया हो।
2023-24 की समीक्षा बैठकें
शिक्षा मंत्रालय द्वारा 2023-24 में आयोजित “एनईपी 2020 के क्रियान्वयन की स्थिति की समीक्षा” के लिए आयोजित क्षेत्रीय (zonal) बैठकों में भी यही ऊपर से नीचे तक का दृष्टिकोण जारी रहा।
इन बैठकों में राज्य शिक्षा सचिव, एनईपी के नोडल अधिकारी, उच्च शिक्षा और स्कूल शिक्षा विभाग के केंद्रीय अधिकारी, और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) के प्रतिनिधि मौजूद थे।
हर राज्य से कहा गया कि वे निम्नलिखित विषयों पर डेटा प्रस्तुत करें —“अब तक उठाए गए कदम,” “लक्ष्य बनाम उपलब्धियाँ,” और “भविष्य की कार्ययोजना।”
लक्ष्य और उपलब्धियाँ
राज्यों से कुल 18 बिंदुओं पर “लक्ष्य बनाम उपलब्धि” का डेटा माँगा गया —
बहुविषयी शिक्षा (Multidisciplinary Education), अकादमिक बैंक ऑफ क्रेडिट (Academic Bank of Credits),
मल्टीपल एंट्री-एग्ज़िट सिस्टम, राष्ट्रीय उच्च शिक्षा योग्यता ढांचा (NHEQF), ओपन और डिस्टेंस लर्निंग (ODL) तथा ऑनलाइन कार्यक्रम, डिजिटल नोडल सेंटर, इंटर्नशिप/अप्रेंटिसशिप एम्बेडेड डिग्री प्रोग्राम, पूर्व छात्र कनेक्ट (Alumni Connect), उद्योग-संस्थान सहयोग, अनुसंधान और विकास सेल, भारतीय और विदेशी उच्च शिक्षा संस्थानों के बीच सहयोग, अंतरराष्ट्रीय मामलों का कार्यालय, रैंकिंग उत्कृष्टता, संस्थागत विकास योजना (IDP) के लिए UGC दिशानिर्देशों का पालन, मान्यता (Accreditation), फैकल्टी ट्रैकिंग, भारतीय भाषाओं में पाठ्यक्रम और पाठ्यक्रम में भारतीय ज्ञान प्रणाली (IKS) को शामिल करना।
बैठक के मिनट्स से पता चला कि इन बैठकों में राज्यों की भागीदारी असमान रही।
जहाँ गुजरात और कर्नाटक ने उच्च भागीदारी और उपलब्धियाँ दर्ज कीं, वहीं तमिलनाडु (जिसने एनईपी को अस्वीकार किया है) और लक्षद्वीप ने “कोई डेटा प्रस्तुत नहीं किया।”
इसी तरह, दमन और दीव ने भी अपनी उपलब्धियों से जुड़ा कोई डेटा प्रस्तुत नहीं किया। बाकी अधिकांश राज्यों ने केवल आंशिक रूप से ही अपने “लक्ष्यों की प्राप्ति” की जानकारी दी है।
केंद्र के दबाव वाले पत्र
शिक्षा मंत्रालय द्वारा सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के उच्च शिक्षा विभागों को बार-बार पत्र भेजे गए, जिनमें “उपलब्धियों और पहलों” से संबंधित डेटा प्रस्तुत करने को कहा गया।
इससे ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र ने राज्यों पर डेटा जमा करने का दबाव बढ़ाया।
“केंद्र के सीधे आदेश”
शिक्षाविद् अनीत रामपाल ने *The Federal* से कहा, “एनईपी की अधिकांश प्रक्रिया कोविड-19 के दौरान की गई थी। उन्होंने इसे ‘पेपरलेस एप्रोच’ कहा, लेकिन दरअसल यह सीधे केंद्र से राज्यों तक दिए गए आदेशों के ज़रिए किया गया था।
राज्यों को केवल कुछ प्रश्नावली भरकर भेजनी थीं — यह सब बहुत अजीब तरह से हुआ।”
संविधान में शिक्षा का दर्जा
भारतीय संविधान की समवर्ती सूची (Concurrent List) में शिक्षा को रखा गया है, जिससे केंद्र और राज्य — दोनों को इस पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। लेकिन आरटीआई से प्राप्त दस्तावेज़ों से संकेत मिलता है कि एनईपी के क्रियान्वयन में केंद्र की भूमिका ने इन सीमाओं को धुंधला कर दिया है।
योजना आयोग की समाप्ति से बढ़ा केंद्रीकरण
एन. वी. वर्गीस, जो नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन संस्थान (NIEPA) के पूर्व कुलपति हैं, उन्होंने इस बढ़ते केंद्रीकरण की जड़ें योजना आयोग के समाप्त होने से जोड़ीं —वह एक “अर्ध-शैक्षणिक संस्था” थी, जो पहले केंद्र और राज्यों के बीच नीति संवाद और विचार-विमर्श का संस्थागत मंच हुआ करती थी।
उन्होंने बताया, “पहले हर साल अक्टूबर में एक बैठक होती थी, जिसमें हर मंत्रालय या विभाग के मंत्री और अधिकारी योजना आयोग से मिलकर अपनी योजनाओं और नीतियों पर चर्चा करते थे। फिर फरवरी या मार्च में अंतिम योजनाएँ तय की जाती थीं। उस समय न सिर्फ राजनीतिक स्तर पर, बल्कि व्यावसायिक और नीतिगत स्तर पर भी संवाद होता था। अब ऐसे संवाद पूरी तरह खत्म हो गए हैं।”
The Federal के अनुसार, उच्च शिक्षा सचिव विनीत जोशी को इस संबंध में भेजी गई प्रश्नावली का कोई उत्तर नहीं मिला।
अगला भाग : आरटीआई दस्तावेज़ों से यह भी खुलासा हुआ है कि केंद्र सरकार राज्य विश्वविद्यालयों में एनईपी को “आगे बढ़ाने” के लिए अपने केंद्रीय वित्त पोषित संस्थानों का इस्तेमाल कर रही है।