कागज़ों पर ही सीमित शिक्षा का अधिकार, अधूरी नीतियां, अधूरे इरादे
गरीब बच्चों को शिक्षित करना महत्वपूर्ण है, लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इसे अच्छी तरह से किया जाए अन्यथा शिक्षा का अधिकार कानून का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा।;
RTE कानून को लागू हुए 15 वर्ष बीते, लेकिन जमीनी हकीकत आज भी चिंता जनक है।पहले दो हिस्सों में हमने देखा कि 2009 में लागू हुआ शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) आज भी अपने मकसद से बहुत पीछे है। राज्य सरकारों की उदासीनता और निजी स्कूलों की अनिच्छा ने इस कानून की प्रभावशीलता को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। शिक्षक और प्रशासक दोनों मानते हैं कि इस कानून को सफल बनाने के लिए कई बाधाओं को पार करना जरूरी है।
सबसे बड़ी बाधा: प्रतिपूर्ति का मुद्दा
निजी स्कूलों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए 25% सीटें आरक्षित करनी होती हैं, और सरकार इसके बदले उन्हें प्रतिपूर्ति देती है। लेकिन स्कूलों का कहना है कि यह प्रतिपूर्ति अधूरी और असमय होती है।पश्चिम बंगाल बाल अधिकार संरक्षण आयोग के एक अधिकारी ने बताया कि सरकार प्रतिपूर्ति राशि की गणना में बिजली, यूनिफॉर्म जैसी लागतों को शामिल नहीं करती, जिससे स्कूलों में असंतोष है।
आंध्र प्रदेश प्राइवेट स्कूल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रताप रेड्डी कहते हैं कि “सरकार बच्चों को RTE के तहत स्कूलों में दाखिला दिलाने के लिए ज़ोर डालती है, लेकिन प्रतिपूर्ति समय पर नहीं मिलती। फीस भी बहुत कम होती है।”दिल्ली के माउंट आबू पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल ज्योति अरोड़ा कहती हैं, “हम वंचित बच्चों को शिक्षा देने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन जो खर्च हम करते हैं, उसकी भरपाई नहीं होती। कम से कम प्रतिपूर्ति की राशि में कुछ बढ़ोतरी होनी चाहिए। उनका एक और सुझाव है कि यूपी की तरह किताबें और यूनिफॉर्म का लाभ सीधे अभिभावकों को दिया जाए, जिससे स्कूल और माता-पिता दोनों को सहूलियत मिले।
अभिभावकों की नाराज़गी
दिल्ली पैरेंट्स एसोसिएशन की अध्यक्ष अपराजिता गौतम सवाल उठाती हैं, “बहुत से निजी स्कूल जनरल कैटेगरी छात्रों से भारी फीस लेते हैं। जिन्हें सिर्फ ₹1 प्रति एकड़ के किराए पर जमीन मिली है, उन्हें प्रतिपूर्ति की जरूरत क्यों है?”
दस्तावेज़ों की दीवार: आधार की बाधा
RTE सेल और काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट की रिपोर्ट (2024) कहती है कि आधार की वजह से भी दाखिलों में अड़चन आती है। 2019 की स्टेट ऑफ आधार रिपोर्ट के मुताबिक, “करीब 13% बच्चों को आधार न होने की वजह से दाखिले में देरी हुई और 25% बच्चों को स्कूल में प्रवेश ही नहीं मिल सका। यह तब है जब सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में साफ कहा था कि स्कूल आधार अनिवार्य नहीं कर सकते।
अल्पसंख्यक टैग की आड़ में बचाव
2012 में एक संशोधन के तहत अल्पसंख्यक संस्थानों को RTE से छूट दी गई, जिससे कई निजी स्कूलों ने खुद को अल्पसंख्यक घोषित कर लिया। NCPCR की 2021 रिपोर्ट के अनुसार, 2000-04 के बीच ऐसे 653 स्कूल थे, जो 2010-14 में बढ़कर 4,550 हो गए।कर्नाटक में तो कुछ दिल्ली पब्लिक स्कूल (DPS) शाखाओं ने भी यह टैग मांगा। हालांकि, वकील अशोक अग्रवाल कहते हैं कि यह बड़ी समस्या नहीं है, क्योंकि “अधिकांश स्कूल अभी भी RTE के दायरे में आते हैं।”
सरकारी खर्च में गिरावट: सबसे गंभीर संकट
CSD-RTE सेल की 2024 रिपोर्ट में कहा गया है कि शिक्षा पर सरकारी खर्च बढ़ाने की ज़रूरत है।
“कोठारी आयोग ने शिक्षा पर GDP का 6% खर्च करने की सिफारिश की थी।
2007-08 में यह 3.7% था,
2009-10 में 0.76%,
2021-22 तक यह 0.34% रह गया,
और 2024-25 में सिर्फ 0.37% है।”
कक्षा 8 के बाद RTE खत्म क्यों?
अशोक अग्रवाल कहते हैं कि “स्कूल RTE के तहत पढ़ने वाले बच्चों को कक्षा 8 के बाद निकाल देते हैं। कानून में संशोधन कर इसे कक्षा 12 तक बढ़ाया जाए ताकि छात्र अपनी स्कूली शिक्षा पूरी कर सकें।”गौतम सवाल करती हैं, “अगर सरकार मानती है कि कक्षा 8 तक की शिक्षा पर्याप्त है, तो वे साफ़ करें कि कौन-सी नौकरियाँ ऐसी हैं जिनके लिए यही योग्यता मान्य होगी।”
RTE की मूल भावना से भटकाव
एनसीईआरटी की पूर्व प्रोफेसर अनीता रामपाल कहती हैं कि RTE की चर्चा केवल आर्थिक पृष्ठभूमि तक सीमित नहीं होनी चाहिए। असली सवाल यह है कि “हम किस तरह की शिक्षा दे रहे हैं?”
“RTE एक्ट कहता है कि शिक्षा खोज और अनुभव आधारित होनी चाहिए, जो आत्मविश्वास और अभिव्यक्ति को बढ़ाए। अगर हम सिर्फ कुछ रट्टाफिक पढ़ाई और टेस्ट पर ध्यान दे रहे हैं, तो हम मूल भावना से भटक चुके हैं।”उनका मानना है कि कॉरपोरेट समूह और एनजीओ RTE को केवल “लर्निंग आउटकम” के चश्मे से देख रहे हैं, जिससे इसकी बच्चों के अनुकूल और समावेशी शिक्षा की आत्मा कमजोर पड़ गई है।
साझा स्कूल प्रणाली की आवश्यकता
2024 की CDS-RTE रिपोर्ट कहती है कि अब वक्त आ गया है कि एक साझा स्कूल प्रणाली (Common School System) पर विचार किया जाए, जो शुरुआत से ही समावेशी और समानता आधारित हो।
सिर्फ EWS कोटे तक सीमित सोच से आगे बढ़ना होगा।एक समान स्कूल प्रणाली ही RTE के लक्ष्यों को पूरा करने का सबसे बेहतर रास्ता है। RTE कानून केवल कागजों पर लागू रह गया है। अगर हम वास्तव में “सबके लिए शिक्षा” के लक्ष्य को हासिल करना चाहते हैं, तो ज़रूरत है कि सरकार, स्कूल और समाज सभी इसकी मूल भावना को समझें और मिलकर ज़मीनी बदलाव करें।
(कोलकाता में समीर के पुरकायस्थ और हैदराबाद में जिंका नागराजू के इनपुट के साथ।)