गंगा-जमुनी सुरों की उमराव जान, कला, करुणा और कौमी एकता की मिसाल

'प्रथम धर ध्यान' उमराव जान का वह दुर्लभ गीत है जो एक ही सांस में अल्लाह, निज़ामुद्दीन औलिया, ब्रह्मा, विष्णु, शिव और कृष्ण जैसे हिंदू-मुस्लिम आस्थाओं के प्रतीकों का आह्वान करता है।;

Update: 2025-07-06 02:36 GMT
उमराव जान की भूमिका में रेखा बेहद प्रभावशाली नजर आती हैं। उनकी युवा उम्र और सांवला रंग उनके गहन और संवेदनशील अभिनय को और भी निखार देते हैं।

27 जून 2024 को भारत के सिनेमाघरों में मुज़फ़्फ़र अली की 1981 की कालजयी फ़िल्म "उमराव जान" का डिजिटल रूप से पुनर्संस्कृत संस्करण दोबारा प्रदर्शित किया गया। इसके एक हफ्ते बाद भी फिल्म थियेटरों में चल रही है। जहां एक ओर बुज़ुर्ग और मध्यम आयु वर्ग की पीढ़ी नॉस्टैल्जिया से भरी आंखों के साथ फिल्म देखने पहुंच रही है, वहीं कुछ युवा दर्शक जिज्ञासा के चलते इसे देखने आ रहे हैं।

मैंने भी हाल ही में उमराव जान को पहली बार सिनेमा हॉल में देखा। इससे पहले इस फिल्म से मेरा संपर्क केवल इसके गीतों के माध्यम से था। रेडियो, ब्लैक-एंड-व्हाइट टीवी, और फिर यूट्यूब पर। लेकिन थिएटर में देखने के बाद यह कहना गलत नहीं होगा कि इस फिल्म में आलोचना के लिए कोई जगह नहीं है। हर पहलू उत्कृष्ट है, मुज़फ़्फ़र अली का निर्देशन, खय्याम का संगीत, आशा भोसले की आवाज़ में उमराव के गीत,शहरयार के लिखे नग़मे,गोपी कृष्ण और कुमुदिनी लाखिया की कोरियोग्राफी, सुभाषिनी अली की डिज़ाइन की गई वेशभूषा सब कुछ अद्भुत है।

रेखा की अदाकारी और एक स्तुति-सा गीत

इस फिल्म की जान हैं रेखा, जिन्होंने उमराव जान का किरदार अद्वितीय सौंदर्य और आत्मा के साथ निभाया। उनकी युवा त्वचा की मृदुता, गेहुआ रंग और सधी हुई अदाकारी मिलकर एक ऐसा चरित्र रचते हैं जो अमर हो गया। इस भूमिका के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार और फिल्मफेयर पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का सम्मान मिला।

खय्याम, जिन्होंने इस फिल्म का संगीत दिया, ने एक बार कहा था कि जब उन्हें "उमराव जान" का प्रस्ताव मिला तो उन्हें डर था कि इसकी तुलना "पाकीज़ा" से की जाएगी, क्योंकि दोनों फिल्मों की पृष्ठभूमि तवायफों की ज़िंदगी पर आधारित है।

एक गीत जो आत्मा को छूता है: प्रथम धर ध्यान

फिल्म में 'दिल चीज़ क्या है', 'इन आँखों की मस्ती', 'जुस्तजू जिसकी थी', 'कहे को ब्याहे बिदेस', और 'ये क्या जगह है दोस्तों' जैसे तमाम गीत हैं जो भावनाओं की गहराई को छूते हैं। लेकिन इनके बीच एक गीत है जो अलग ही ऊंचाई पर है। 'प्रथम धर ध्यान', जो एक स्तुति जैसा गीत है और कई रागों में गाया गया है।

यह गीत फिल्म में उस दृश्य के दौरान आता है जहां खानुम जान (शौकत कैफ़ी द्वारा निभाया गया किरदार) के कोठे पर लाई गईं बच्चियों को संगीत और नृत्य की शिक्षा दी जाती है। उमराव जान, जिसका असली नाम अमीरन है, और बिस्मिल्लाह जान (प्रीमा नारायण) को खान साहब (भारत भूषण) द्वारा संगीत सिखाया जाता है।

यह गीत 'अल्लाह' से शुरू होता है, फिर सूर्य देव (दिनेश), ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक जाता है। फिर इसमें सूफी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का ज़िक्र आता है और अंत में शिव से प्रार्थना की जाती है। गीत में तीन बार कृष्ण के वृंदावन के लीलाओं का उल्लेख होता है।

गंगा-जमुनी तहज़ीब की जीवंत मिसाल

हालांकि फिल्म की पृष्ठभूमि, पात्र और जीवनशैली मुस्लिम हैं जैसे खान साहब, खानुम जान  लेकिन शिक्षा में हिंदू और मुस्लिम दोनों परंपराएं शामिल हैं। 'प्रथम धर ध्यान' गीत इसका सशक्त उदाहरण है, जो 'अल्लाह' और हिंदू देवताओं दोनों का आह्वान करता है। यह गंगा-जमुनी तहज़ीब का सजीव चित्रण है  वह संस्कृति जो हिंदुओं और मुसलमानों को जोड़ती है।

इस तहज़ीब में धार्मिक भिन्नता 'हम बनाम वे' का विभाजन नहीं बनाती थी, बल्कि यह सह-अस्तित्व और परस्पर सम्मान की भावना से भरी थी। यह गीत दर्शाता है कि 19वीं सदी के मध्य, जब उमराव जान की कहानी स्थित है, तब दोनों धर्मों के लोग एक-दूसरे की आस्थाओं का सम्मान करते थे।

हमारी साझा विरासत की स्मृति

विविध भारती के जयमाला गोल्ड कार्यक्रम में मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही (1918–1993) ने अपने बचपन की एक घटना साझा की थी। एक बार उनकी बिल्डिंग की ऊपरी मंज़िल पर एक लंबे दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग आए। सबने उन्हें मुस्लिम समझा। कमाल की मां ने उनसे कुरान की आयतें पढ़ाने को कहा। बुज़ुर्ग ने मुस्कराते हुए बताया कि वह मौलवी नहीं, बल्कि हिंदू ब्राह्मण हैं। लेकिन यह जानकारी कमाल अमरोही के परिवार के लिए कोई फर्क नहीं डालती थी।

उन दिनों, उन्होंने बताया, हिंदू और मुस्लिम एक-दूसरे के धर्मग्रंथ पढ़ते थे, भाषाएं साझा करते थे। हिन्दी, उर्दू, संस्कृत किसी एक मज़हब की नहीं थीं, बल्कि पूरे उत्तर और मध्य भारत की साझा धरोहर थीं।

साहित्य में भी यही भावना

साहिर लुधियानवी ने इस भाव को अपने गीतों में बार-बार उकेरा। 1959 की फिल्म धूल का फूल में उन्होंने लिखा

"क़ुरान ना हो जिसमें वो मंदिर तेरा नहीं,

गीता ना हो जिसमें वो हरम तेरा नहीं है"

और 1961 की धर्मपुत्र की कव्वाली में उन्होंने लिखा:

"ये शेख़-ओ-ब्राह्मण के झगड़े सब नासमझी की बातें हैं,

हमने तो है बस इतना जाना, चाहे ये मानो चाहे वो मानो"

आख़िर में एक प्रश्न

उमराव जान सिर्फ एक फिल्म नहीं है, यह एक संस्कृति की पुनर्पुष्टि है। एक ऐसी संस्कृति जो सूफी और भक्ति आंदोलन से जन्मी।आज जब धर्म, भाषा, भोजन और रहन-सहन जैसे विषयों को राजनीति का हथियार बना दिया गया है, तो क्या हम उस तहज़ीब को बचा पाएंगे?

क्या गंगा-जमुनी तहज़ीब को बचाए रखने की आशा करना आज के भारत में बहुत ज़्यादा उम्मीद करना है?यह सवाल, शायद फिल्म खत्म हो जाने के बाद भी, हमारे दिलों में गूंजता रहेगा…

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