Bihar 'SIR': चुनाव आयोग की दलील के बाद नया सवाल, कौन होगा अगला निशाना?

चुनाव आयोग ने SC में कहा- आधार, राशन, वोटर ID नागरिकता के सबूत नहीं। 52 लाख नाम नियम के खिलाफ हैं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में 28 जुलाई को अहम सुनवाई होगी।;

Update: 2025-07-23 09:01 GMT

बिहार में चल रही स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) प्रक्रिया को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है, लेकिन इस बीच चुनाव आयोग (EC) द्वारा दायर किया गया 88 पन्नों का हलफनामा कई गंभीर चिंताओं को जन्म दे रहा है। आयोग ने अपने जवाब में आधार कार्ड, राशन कार्ड और यहां तक कि वोटर आईडी को भी नागरिकता प्रमाण के रूप में मानने से इनकार कर दिया है। वरिष्ठ पत्रकार पुनीत निकोलस यादव इस हलफनामे के कानूनी और राजनीतिक निहितार्थों की पड़ताल करते हैं।

दस्तावेज़ क्यों खारिज किए गए?

चुनाव आयोग ने कहा है कि आधार सिर्फ पहचान का प्रमाण है, नागरिकता का नहीं। यह कानूनी रूप से भले सही हो, लेकिन आधार को पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस और सैकड़ों सरकारी योजनाओं में अनिवार्य किया गया है। ऐसे में अब यह कहना कि आधार मान्य नहीं, बेहद विरोधाभासी है, क्योंकि यही एकमात्र पहचान पत्र है जो कई गरीबों के पास होता है।


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इसी तरह वोटर आईडी को खारिज करने का तर्क यह दिया गया कि SIR का उद्देश्य सभी मतदाताओं की पात्रता को दोबारा परखना है, इसलिए पुरानी आईडी अपने आप में मान्य नहीं है। यह तर्क बेहद चिंताजनक है—अगर आयोग अपनी ही जारी की गई पहचान प्रणाली को अविश्वसनीय बताता है, तो इससे पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठते हैं।

राशन कार्ड को तो सीधे "फर्ज़ी" करार दे दिया गया, जबकि सरकार ने कोविड-19 के दौरान 80 करोड़ लोगों को राशन देने की बात कही थी। अगर अब यह कार्ड फर्ज़ी हैं, तो क्या वह योजना झूठी थी? यह सवाल सिर्फ चुनावी पारदर्शिता का नहीं, बल्कि सुशासन और भरोसे का भी है।

क्या नाम हटाना नागरिकता खत्म करने जैसा है?

कानूनी रूप से, चुनाव आयोग नागरिकता समाप्त नहीं कर सकता। लेकिन अगर किसी को मतदाता सूची से हटाया गया, तो व्यावहारिक रूप से उसे "गैर-नागरिक" मान लिया जाता है। गृह मंत्रालय उन नामों के आधार पर डिटेंशन सेंटर, डिपोर्टेशन जैसी कार्रवाइयां शुरू कर सकता है। इसका सबसे अधिक असर बिहार के कोसी-सीमांचल इलाके के गरीब, अल्पसंख्यक और हाशिए पर खड़े नागरिकों पर पड़ेगा—जो सिस्टम से लड़ने की ताकत नहीं रखते।

क्या 52 लाख लोगों का नाम हटाना वाजिब है?

EC के अनुसार 7.9 करोड़ वोटरों में से अब तक 52 लाख नाम हटा दिए गए हैं, यानी करीब 7%। इनमें से 18 लाख को मृत घोषित किया गया है। लेकिन लोकसभा चुनाव तो कुछ ही महीने पहले हुए थे—क्या ये सब तब जीवित थे और अचानक अब मर गए? अगर 6 महीने में 18 लाख लोग मरे, तो रोज़ाना 900 मौतें हुईं—जो अविश्वसनीय आंकड़ा है।

26 लाख को "राज्य से बाहर चले जाने" के आधार पर हटाया गया है। लेकिन भारत में लाखों लोग काम के लिए बाहर रहते हैं, और फिर भी अपने गांवों में रजिस्टर्ड रहते हैं। EC पहले प्रवासी मतदाताओं के लिए सुविधाएं लाने की बात कर चुका था—अब उन्हें ही हटाना बेहद विरोधाभासी है।

आगे क्या होगा सुप्रीम कोर्ट में?

अब गेंद याचिकाकर्ताओं के पाले में है। वे आयोग के हलफनामे का जवाब दाखिल करेंगे और आधार, EPIC व राशन कार्ड को खारिज किए जाने का विरोध करेंगे। 28 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट की अहम सुनवाई होगी, जिसमें कोर्ट तीन में से कोई भी निर्णय ले सकता है, EC के रुख को पूरी तरह मानना, आंशिक रूप से मानना, या पूरी प्रक्रिया पर रोक लगाना।अगर कोर्ट ने बिहार मॉडल को मान्यता दी, तो आने वाले समय में यह प्रक्रिया अन्य राज्यों में भी लागू हो सकती है।

चुनाव प्रक्रिया पर संकट, लोकतंत्र पर सवाल

आगामी एक साल में पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में SIR प्रक्रिया पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पूरे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए निर्णायक साबित होगा। यह स्पष्ट होना ज़रूरी है कि:

किन दस्तावेजों को मान्य माना जाएगा?

जो लोग अस्थायी रूप से बाहर हैं, उनका क्या होगा? अगर किसी के पास सिर्फ आधार या राशन कार्ड है, तो क्या वो वोटर बन पाएगा? जब तक इन सवालों के जवाब स्पष्ट और न्यायसंगत नहीं मिलते, तब तक लोकतंत्र में जनता का विश्वास डगमगाता रहेगा।

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