बहरी सरकारें, गूंगी जनता और सत्ता के खेल का पर्दाफाश
सीएजी रिपोर्ट की मानें तो सरकारी खजाने को 2,002.68 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. लेकिन सवाल यह है कि यह पैसा गया कहां? अगर यह लूट हुई तो लुटेरे कौन हैं?;
अपने यहां घोटाले जन्म लेते हैं, बड़े होते हैं, फिर किसी और बड़े घोटाले की आहट में गुम हो जाते हैं। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की हालिया रिपोर्ट ने शराब नीति में गहरी अनियमितताओं और भ्रष्टाचार की परतें खोल दी हैं। यह रिपोर्ट केवल वित्तीय गड़बड़ियों का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि यह सत्ता और व्यापार के गठजोड़ का एक ज्वलंत उदाहरण भी पेश करती है। दिल्ली सरकार की 2021-22 की आबकारी नीति के नाम पर कैसे सत्ता से जुड़े कुछ गिने-चुने लोगों को फायदा पहुंचाया गया, इस रिपोर्ट में इसका पूरा विवरण दर्ज है। सवाल यह नहीं है कि यह घोटाला हुआ या नहीं—CAG के ठोस आंकड़ों ने यह साबित कर दिया है कि सरकारी खजाने को 2,002.68 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। असली सवाल यह है कि क्या इस घोटाले के लिए कोई जवाबदेही तय होगी या फिर इसे भी बाकी घोटालों की तरह ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा?
सरकारी खजाने को 2,002.68 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. लेकिन सवाल यह है कि यह पैसा गया कहां? अगर यह लूट हुई तो लुटेरे कौन हैं? घोटाले का यह खेल केवल सत्ता के गलियारों तक सीमित नहीं है। इसके तीन किरदार हैं—एक, वह सरकार जो बहरी बनी रही और इस लूट को अनदेखा करती रही। दूसरा, वह प्रशासन जिसने इस घोटाले को न केवल अनुमति दी बल्कि इसे अमल में भी लाया और तीसरा वह जनता जो हर बार किसी न किसी घोटाले पर चुप्पी साध लेती है, जब तक कि उसके सामने कोई नया मुद्दा नहीं उछाल दिया जाता.
सरकार का तर्क था कि यह नीति शराब व्यवसाय में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने, भ्रष्टाचार खत्म करने और सरकारी राजस्व में बढ़ोतरी के लिए लाई गई थी। लेकिन CAG रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि यह नीति सिर्फ़ कागज़ों में अच्छी थी, ज़मीनी हकीकत कुछ और ही थी। जिन तथ्यों को उजागर किया गया है, वे केवल प्रशासनिक विफलता की ओर इशारा नहीं करते, बल्कि यह दिखाते हैं कि इस नीति को कुछ विशेष हितधारकों को सीधा लाभ पहुंचाने के लिए गढ़ा गया था। सरकारें आम जनता के सवालों को अनसुना करने में माहिर हो चुकी हैं। शराब नीति को जब लागू किया गया, तब इसे “सुधार” का नाम दिया गया। कहा गया कि इससे दिल्ली में शराब की बिक्री पारदर्शी होगी, भ्रष्टाचार खत्म होगा और सरकार को अधिक राजस्व मिलेगा. लेकिन CAG रिपोर्ट बताती है कि इस नीति से केवल कुछ खास व्यापारियों को फायदा हुआ।
सरकारी खजाने को कैसे लगा 2,002.68 करोड़ का झटका?
शराब नीति से जुड़ी अनियमितताओं की सूची लंबी है। लेकिन सबसे बड़ा नुकसान सरकार की अक्षमता और सोची-समझी रणनीति के कारण हुआ। सबसे पहले, 941.53 करोड़ रुपये की हानि इसलिए हुई क्योंकि लाइसेंसधारियों को मनमाने तरीके से छूट दी गई और गैर-अनुरूप वार्डों में खुदरा दुकानें नहीं खोली गईं। इसके अलावा, 890 करोड़ रुपये का नुकसान तब हुआ, जब सरकार सरेंडर किए गए शराब लाइसेंसों को दोबारा टेंडर करने में विफल रही। इसी तरह, कोविड-19 के बहाने आबकारी विभाग की सलाह को दरकिनार करते हुए क्षेत्रीय लाइसेंसधारियों को 144 करोड़ रुपये की अतिरिक्त छूट दी गई.
सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह सारी छूट और नीति में बदलाव किनके लिए किए गए? अगर केजरीवाल सरकार का उद्देश्य राजस्व बढ़ाना था तो यह स्पष्ट रूप से विफल रहा। लेकिन अगर सरकार का असली उद्देश्य किसी खास व्यापारी समूह या सत्ता से जुड़े लोगों को फायदा पहुंचाना था तो यह नीति पूरी तरह सफल रही।
जब इतने बड़े पैमाने पर राजस्व की चोरी हुई, तब केजरीवाल सरकार क्या कर रही थी? क्या सत्ता में बैठे लोग इतने नासमझ थे कि उन्हें यह नहीं दिखा कि सरकारी खजाने को लूटा जा रहा है? या फिर यह सब एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया ताकि कुछ खास लोगों की जेबें भरी जा सकें? केजरीवाल सरकार की यह बहरी चुप्पी साबित करती है कि या तो वह पूरी तरह अक्षम थी या फिर इस खेल में पूरी तरह शामिल थी।
लाइसेंस वितरण में अनियमितताएं और सत्ता की मिलीभगत
CAG रिपोर्ट ने स्पष्ट किया है कि शराब नीति के लागू होने में कई स्तरों पर नियमों की अनदेखी की गई. दिल्ली आबकारी नियम, 2010 के नियम 35 को लागू करने में सरकार पूरी तरह विफल रही। इस नियम के अनुसार, विनिर्माण, थोक और खुदरा कारोबार को अलग-अलग रखा जाना चाहिए था ताकि कोई भी कंपनी पूरी आपूर्ति श्रृंखला पर नियंत्रण न कर सके. लेकिन इसके बजाय सरकार ने कुछ बड़े खिलाड़ियों को पूरे कारोबार पर हावी होने की छूट दे दी.
रिपोर्ट के अनुसार, थोक विक्रेताओं का मार्जिन 5% से बढ़ाकर 12% कर दिया गया, यह तर्क देते हुए कि गोदामों में सरकार द्वारा अनुमोदित प्रयोगशालाएं स्थापित की जाएंगी. लेकिन एक भी प्रयोगशाला स्थापित नहीं की गई, जिससे साफ़ है कि यह कदम केवल कुछ कंपनियों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए उठाया गया था.
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि खुदरा शराब लाइसेंस जारी करने के लिए कोई ठोस पात्रता मानदंड ही तय नहीं किया गया। 100 करोड़ रुपये से अधिक के निवेश की आवश्यकता होने के बावजूद, सरकार ने लाइसेंस जारी करने से पहले सॉल्वेंसी, वित्तीय स्थिति और आपराधिक रिकॉर्ड की उचित जांच तक नहीं की. कई बोलीदाताओं की पिछले तीन वर्षों में न्यूनतम से शून्य आय थी, फिर भी उन्हें लाइसेंस दिए गए. यह दर्शाता है कि या तो वे किसी बड़े व्यापारी के लिए “प्रॉक्सी मालिक” थे या फिर यह सौदेबाजी राजनीतिक प्रभाव में की गई।
कारोबारी एकाधिकार और उपभोक्ताओं के अधिकारों का हनन
CAG रिपोर्ट ने यह भी खुलासा किया है कि दिल्ली की शराब नीति में प्रतिस्पर्धा को खत्म कर एकाधिकार को बढ़ावा दिया गया। पहले, एक आवेदक केवल दो खुदरा दुकानें संचालित कर सकता था. लेकिन नई नीति में यह सीमा 54 दुकानों तक बढ़ा दी गई, जिससे कुछ कंपनियों का प्रभुत्व और मजबूत हो गया।
दिल्ली में कुल 367 पंजीकृत ब्रांडों में से केवल 25 ब्रांडों ने 70% बिक्री पर कब्जा कर लिया और केवल तीन थोक विक्रेताओं (इंडोस्पिरिट, महादेव लिकर और ब्रडको) ने 71% से अधिक आपूर्ति को नियंत्रित किया. इससे सरकार के संभावित राजस्व को तो नुकसान हुआ ही, साथ ही शराब उपभोक्ताओं के पास विकल्प भी सीमित हो गए. प्रतिस्पर्धा के अभाव में शराब की कीमतों को कृत्रिम रूप से बढ़ाया गया, जिससे आम जनता को अधिक कीमत चुकानी पड़ी.
कैबिनेट प्रक्रियाओं और कानूनी नियमों की अवहेलना
CAG रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि नीति से जुड़े कई प्रमुख फैसले बिना कैबिनेट की मंजूरी के लिए गए. शराब लाइसेंस और कर छूट से जुड़े निर्णयों को न तो उपराज्यपाल (LG) से अनुमोदन मिला और न ही पूरी कैबिनेट के सामने रखा गया। सरकारी तंत्र में इसे कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन माना जाता है. लेकिन इस घोटाले में इन नियमों को धड़ल्ले से तोड़ा गया।
सबसे चौंकाने वाला खुलासा यह है कि दिल्ली के कुछ क्षेत्रों में बिना नगर निगम (MCD) या दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) की मंजूरी के शराब की दुकानें खोल दी गईं। निरीक्षण टीमों ने पाया कि जोन 23 में चार दुकानों को अवैध रूप से “व्यावसायिक क्षेत्र” घोषित कर दिया गया, जबकि वे वास्तव में आवासीय क्षेत्रों में थीं।
CAG की रिपोर्ट केवल दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं, बल्कि यह सत्ता के भ्रष्टाचार का एक खुला सबूत है. क्या सरकार इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करेगी? क्या उन अधिकारियों और नेताओं की जवाबदेही तय होगी, जिन्होंने यह नीति बनाई और लागू की?
गूंगी जनता: हर घोटाले को ‘नसीब’ मान लेने की आदत
घोटाले होते हैं, जनता थोड़ा हंगामा करती है, फिर चुप हो जाती है। यही इस देश का हाल है। जब यह नीति बनाई जा रही थी, तब कोई सवाल नहीं उठा। जब शराब के लाइसेंस मनमाने तरीके से दिए गए, तब किसी ने ध्यान नहीं दिया। जब दिल्ली की शराब की दुकानों पर गिने-चुने ब्रांड ही बेचे जा रहे थे, तब भी लोगों को कोई आपत्ति नहीं हुई।
यह वही जनता है जो रोज़ महंगाई पर चर्चा करती है, नौकरी की कमी पर हताश होती है. लेकिन जब उसके पैसे को सत्ता और व्यापार के गठजोड़ के जरिए लूटा जाता है, तब वह इसे “व्यवस्था का हिस्सा” मानकर चुप रह जाती है। यह चुप्पी ही असली समस्या है। जनता अगर सही समय पर सवाल पूछने लगे तो सरकारों को बहरी बनने की हिम्मत ही न हो। जब तक जनता गूंगी बनी रहेगी, घोटाले होते रहेंगे। जब तक सरकारों को जवाबदेह बनाने का साहस नहीं दिखाया जाएगा, वे बहरी बनी रहेंगी।