लेह की गलियों से दिल्ली के दरवाजे तक, लद्दाख की पहचान की लड़ाई फिर भड़की
अब सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार लद्दाख की आवाज़ सुनेगी या यह आंदोलन भी इतिहास के अधूरे अध्यायों में जुड़ जाएगा?
लद्दाख के इतिहास में 24 सितंबर को एक निर्णायक मोड़ के तौर पर याद किया जाएगा। छह साल से शांतिपूर्ण तरीकों से चल रहा आंदोलन उस दिन भड़क उठा, जब दो वरिष्ठ अनशनकारियों की हालत बिगड़ने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। यह घटना युवाओं के सब्र का बांध तोड़ने वाली साबित हुई।
23 सितंबर को जब दो अनशनकारियों को गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया तो लेह एपेक्स बॉडी की युवा शाखा ने 24 सितंबर को बंद और शांतिपूर्ण प्रदर्शन का आह्वान किया। लेकिन दोपहर होते-होते प्रदर्शन हिंसक हो गया। युवाओं ने राजनीतिक दलों के दफ्तरों में आगजनी की, लेह हिल काउंसिल कार्यालय को क्षति पहुंचाई, वाहनों पर हमला किया और बीजेपी कार्यालय को जला दिया।
पुलिस ने पहले लाठीचार्ज और आंसू गैस का इस्तेमाल किया, फिर सीधे फायरिंग शुरू कर दी। इस हिंसा में चार युवाओं की मौत हो गई, जबकि 70 से अधिक घायल हुए हैं। मारे गए युवाओं की पहचान त्सेवांग थरचिन (46)- स्कुर्बुचन, स्तांजिन नामग्याल (24)- ईगू, जिग्मेत दोरजे (25)- खर्नाकलिंग, रिंचेन डाडुल (21)- हानू के तौर पर हुई है।
इतिहास खुद को दोहरा रहा
1989 में लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने की मांग में तीन युवकों की पुलिस फायरिंग में मौत हुई थी। 2025 में वही इतिहास एक बार फिर खून-खराबे के रूप में सामने आया है। फर्क इतना है कि अब लड़ाई कश्मीर से अलग पहचान की बजाय दिल्ली से संवैधानिक अधिकारों की है।
संघर्ष के बदलते मायने
1980 के दशक में लद्दाख की लड़ाई का मुख्य केंद्र जम्मू-कश्मीर प्रशासन से अलग पहचान थी। 1995 में लेह और 2003 में करगिल में लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद (LAHDC) की स्थापना उसी आंदोलन का परिणाम थी। लेकिन 2019 में अनुच्छेद 370 और 35A हटने के बाद लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश तो बना दिया गया, मगर छठी अनुसूची, विधानसभा, भूमि-संरक्षण और स्थानीय रोज़गार जैसे संवैधानिक अधिकारों की मांग अधूरी रह गई।
असंतोष का विस्फोट
पिछले छह वर्षों में लद्दाखी नेतृत्व ने अनशन, पदयात्रा, शांतिपूर्ण धरने, गृह मंत्रालय से 8 दौर की बातचीत जैसे सभी लोकतांत्रिक रास्ते अपनाए, लेकिन उन्हें ठोस समाधान नहीं मिला। नई पीढ़ी को लगने लगा कि दिल्ली सिर्फ वादे करती है, लेकिन अमल नहीं करती और जब शांतिपूर्ण विरोध बेअसर हो जाए, तब गुस्सा सड़कों पर फूटता है।
लेह और कारगिल की संयुक्त आवाज
2019 के बाद जहां लेह शुरुआत में केंद्र शासित प्रदेश बनने का स्वागत कर रहा था, वहीं करगिल ने इसे "लोकतंत्र पर हमला" बताया था। लेकिन अब दोनों ज़िले एकजुट होकर छठी अनुसूची में शामिल होने, विधान सभा की स्थापना जैसी मांगों के साथ सामने आए हैं।
नॉन-वायलेंस से हिंसा तक
सोनम वांगचुक की भूख हड़ताल और पदयात्रा से शुरू हुआ आंदोलन, जो अहिंसक था, अब हिंसा की तरफ मुड़ता नजर आ रहा है। सोनम वांगचुक ने आंदोलनकारियों से शांति बनाए रखने की अपील की थी। लेकिन सरकार की अनदेखी और संवादहीनता ने जनभावनाओं को आक्रोश में बदल दिया।
सरकार की अग्निपरीक्षा
6 अक्टूबर को लद्दाखी नेताओं और केंद्र सरकार के बीच बातचीत प्रस्तावित थी। लेकिन मौजूदा हिंसा के चलते यह बातचीत अनिश्चितता के घेरे में आ गई है। अब केंद्र के पास दो रास्ते हैं। पहला आंदोलन को रूपांतरित करने के लिए सकारात्मक पहल करें। दूसरा इसे दमन के ज़रिए और लंबा खींचे।
लद्दाख के नेतृत्व के लिए दोहरी चुनौती
हिंसा से आंदोलन की नैतिक ताकत कमजोर होती है। नेताओं को शांतिपूर्ण रास्ता ही अपनाना होगा। जब तक छठी अनुसूची और अन्य संवैधानिक अधिकारों पर ठोस फैसला नहीं होता, तब तक असंतोष खत्म नहीं होगा।
आगे का रास्ता
अब सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार लद्दाख की आवाज़ सुनेगी या यह आंदोलन भी इतिहास के अधूरे अध्यायों में जुड़ जाएगा? अगर दिल्ली ने लद्दाख की कुर्बानियों और आवाज़ को गंभीरता से लिया तो शायद समाधान संभव हो। वरना 24 सितंबर 2025 लद्दाख के इतिहास में एक और बलिदान दिवस बनकर रह जाएगा।